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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
रदत्त यक्ष की । उवाइणित्तए -प्रार्थना करू' अर्थात् मनौती मनाऊ । तते णं-तदनन्तर । सेवह । सागरदत्त - सागरदत्त । गंगादत्त - गङ्गादत्ता । भारियं - भार्या के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोला । देवाणुप्पिए !-हे महाभागे ! । ममं पिय -मेरा भी । एस चेव-यही । मणोरहे- मनोरथ-कामना है कि । कहं णं - किसी तरह भी । तुम-तुम । दारगं वा-जीवित रहने वाले बालक अथवा । दारियं वा - बालिका को । पयाएज्जासि - जन्म दो, इतना कह कर । गंगादत्त भारियं-गंगादत्ता भार्या को । एयम - इस अर्थ - प्रयोजन के लिये। अणुजाणेति-आज्ञा दे देता है, अर्थात् उस के उक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है।
मूलार्थ- उस समय सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या जातनिद्र ता थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही विनाश को प्राप्त हो जाते थे । किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता से जागती हुई उस गंगादत्ता साथवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्नो क्त है
मैं चिरात से सागरदत्त सार्थवाह-संघनायक के साथ मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान कामभोगों का उपभोग करतो रहो हूं, परन्तु मैंने आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया । अतः वे माताएं हो धन्य हैं तथा वे माताएं ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं एवं उन्होंने ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिन की सनगत दुग्ध में लुब्ध, मधुरभाषण से युक्त. अव्यक्त अथच स्खलित वचन वाली, स्तनमूल से कक्षप्रदेश तक अभिमरणशील, नितान्त सरल, कमल के समान कोमल - सुकुमार हाथों से पकड़ कर अंक-गोदी में स्थापित की जाने वाली और पुनः पुन: सुमधुर, कोमल प्रारंभ वाले वचनों को कहने वालो अपने पेट से उत्पन्न हुई सन्ताने हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूं।
मैं तो अधन्या, अपुण्या-पुण्यरहित हूं, अकृतपुण्या हूं' क्योंकि मैं इन पूर्वोक्त बालसुलभ चेष्टाओं में से एक को भी प्राप्त नहीं कर पाई । अतः मेरे लिये यही श्रेय-हितकर है कि मैं कल प्रातःकाल सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछ कर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार लेकर बहुत सी मित्रों', ज्ञातिजनों, निजकों. स्वजनों सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिपंड नगर से निकल कर बाहिर उद्यान में जहां उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन- स्थान है वहां जाकर उम्बर,त्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थना करू_ हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालक या बालिका को जन्म दू तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग-लाभग्रंश और देवभंडार में वृद्धि करूंगी । तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी पूजा किया करूंगो या पूजा का संवर्द्धन किया करूगी, अर्थात् पहले से अधिक पूजा किया करूंगी। दान दिया करूगी या तुम्हारे नाम पर दान किया करूंगी या तुम्हारे दान में वृद्धि करूगी अर्थात् पहले से ज्यादा दान दिया करूंगी। भाग-लाभांश अर्थात् अपनी प्राय के अंश को दिया करूंगी या तुम्हारे लाभांश- देवद्रव्य में वृद्धि करूगी । तथा तुम्हारे अक्षयनिधि-देवभंडार में वृद्धि करूगी, उसे भर डालूगी ।
(१) मित्र, ज्ञाति आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में किया जा चुका है।
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