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३९८]
श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
जिन के संभाषण अत्यंत मधुर हैं । मम्मणपयंपियाई --जिन के प्रजल्पन-वचन मन्मन अर्थात् अव्यक्त अथच स्वलित हैं । थणमूला - स्तन के मूलभाग से । कक्खदेसभागं - कक्ष (कांख) प्रदेश तक । अतिसरमाणगाई- सरक रहीं हैं । मुद्धगाई-जो मुग्ध - नितान्त सरल हैं, और फिर । कोमल - कमलोवमेहि-कमल के समान कोमल-सुकुमार । हत्थेहिं - हाथों से । गेरिहऊण - ग्रहण कर -पकड़ कर । उच्छंगनिवेसियाई-उत्संग में - गोदी में स्थापित की हुई है। पुणो पुणो- बार बार । सुमहुरेसुमधुर । मंजुलप्पभणिते - मजुलप्रभणित-जिन में प्रभणित - भणनारंभ अर्थात् बोलने का प्रारम्भ मंजुल- कोमल है, ऐसे । समुल्लावए- समुल्लापों-वचनो को । दिति-सुनाते हैं, सारांश यह है कि जिन माताओं की ऐसी संतानें हैं उन्हीं का जन्म तथा जीवन सफल है, ऐसा मैं । मन्नेमानती हूं. परन्तु । अहं णं-मैं तो अधन्ना-अधन्य हूँ। अपुरणा - पुण्यहीन हूँ। अकयपुगणाअकृतपुण्य हूँ अर्थात् जिसने पूर्वभव में कोई पुण्य नहीं किया. ऐसी हूँ । एत्तो - इन उक्त चेष्टाओं में से । एक्कतरमवि-एक भी । न पत्ता-प्राप्त न हुई अर्थात् बालसबन्धी उक्त चेष्टाओं में से मुझे एक के देखने का भी आज तक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। तं- इसलिये। खलु-निश्चय ही। ममं - मेरे लिये यही। सेयं - कल्याणकारी है, कि | कल्यं जाव - प्रात:काल यावत् । जलंते- सूर्य के देदीप्यमान हो जाने पर अर्थात् सूर्योदय के बाद । सागरदत्तं - सागरदत्त । सत्यवाहं-सार्थवाह को । श्रापुच्छित्तापूछ कर । सुबहुं-बहुत ज़्यादा । पुष्कवत्थगंधमल्लालंकारं- पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला, तथा अलंकार ये सब पदार्थ । गहाय-लेकर । बहूहि-बहुत से । मित्तणाइनियासयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिंमित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन की महिलाओं के । सद्धिं-साथ । पाडतिसंडाओ -- पाटलिषंड । णगरानो- नगर से । पडिनिक्वमित्ता--निकल कर । बहिया - बाहिर । जेणेवजहां पर । उबरदत्तस्स- उम्बरदत्त नामक । जक्वस्त-यक्ष का । जक्वायतणे - यक्षायतन -स्थान था । तेणेव-वहां पर । उवागच्छित्ता-जाकर । तत्थ णं-वहां पर । उंबादत्तस्स - उम्बरदत्त । जक्खस्स-यक्ष की। महरिहं-महाई - बड़ों के योग्य । पुष्फच्चणं - पुष्पार्चन-पुष्पों से पूजन । करेसाकरके । जाणुपादपडियाए-घुटने टेक उनके चरणों पर पड़ी हुई । उवयाइत्तए - उन से याचना करू कि । देवाणुप्पिया!- हे महानुभाव ! । जति गं-यदि । अहं - .मैं । दारगं-एक भी (जी. वित रहने वाले) बालक, अथवा । दारियं- (जीवित रहने वाली) बालिका को । पयामि-जन्म दू। तो णं-तो। अहं- मैं । तुब्भं-आप के । जायं च-याग – देवपूजा । दायं च -दान- देय अंश । भागं च-भाग-लाभ का अंश तथा । अक्षयणिहिं च -अझयनिधि – देवभंडार की। अणुवडहे - स्सामि-वृद्धि करूंगी । नि कह --- इस प्रकार कह कर के । अोवाइयं-उपयाचित - इष्टवस्तु की । उवाइणित्तए- प्रार्थना करने के लिये। एवं-इस प्रकार । संपेहेति संपेहित्ता-विचार करती है, विचार कर । कल्लं जाव-प्रात:काल यावत् । जलते-सूर्य के उदित होने पर । जेणेव-जहां पर । सागरदत्तेसागरदत्त । सत्यवाहे-सार्थवाह था । तेणेव -वहीं पर । उवागछति उवागच्छित्ता-आती है, आकर । सागरदत्तं-सागरदत्त । सत्यवाहं-सार्थवाह को । एवं-इस प्रकार । वयासो-कहने लगी । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । देवाणुप्यिया !-हे महानुभाव ! । अहं - मैं ने । तुम्भेहि-श्राप के । सद्धिं-साथ । जाव-यावत् अर्थात् उदार - प्रधान काम भोगों का सेवन करते हुए भी आज तक । एक भी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री को । न पत्ता - प्राप्त नहीं किया । तं- इसलिये । देवाणुप्पिए! हे महानुभाव ! । इच्छामि णं-मैं चाहती हूं कि । तुब्भेहिं-आप से । अभणुराणाता. अभ्यनुज्ञात हुई-अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर । जाव-यावत् अर्थात् इष्टवस्तु की प्राप्ति के लिये उम्ब
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