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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[ ४० १
है, जिन्होंने पुत्र को जन्म दे कर अपनी कुक्षि को सार्थक बनाया है १, परन्तु मैं कितनी हतभागिनी हूं, कि जिसे इन में से श्राज तक कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाया, इस से अधिक मेरे लिये दुःख की और क्या बात हो सकती है १, अस्तु, अब एक उपाय शेष है, जिस पर मुझे विशेष आस्था है, मैं अव उसका अनुसरण करूंगी। संभव है कि भाग्य साथ दे जाए। कल प्रातःकाल होते ही सेठ जी से पूछ कर तथा उनसे श्राज्ञा मिल जाने पर मैं नाना प्रकार की पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य तथा अलंकार यदि पूजा की सामग्री लेकर बाहिर उद्यानगत उम्बरदत्त यक्षराज के मन्दिर में जाकर उनकी उक्त सामग्री से विधिवत् पूजा करूंगी और तत्पश्चात् उनके चरणों में पड़कर प्रार्थना करूंगी, मनौती मनाऊंगी कि यदि मेरे गर्भ से जीवित रहने वाले पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हो तो मैं आपकी विधिवत् पूजा किया करूंगी, आप के नाम से दान दिया करूंगी और आपके लाभांश में तथा आप के भंडार में वृद्धि कर डालूंगी ।
सूत्रकार ने - जायं, दार्य, भागं - और
वयणिहिं- ये चार द्वितीयांत पद देकर एक वड्डेस्सामि यह क्रियापद दिया है। सभी पदों के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ने से “ - याग - देवपूजा में वृद्धि करूगी, अर्थात् जितनी पहले किया करती थी, उस से और अधिक किया करू ंगी, या दूसरों से करवाया करूंगी। दान में वृद्धि करूगी अर्थात् जितना पहले देती थी उससे अधिक दान दिया करूंगी या दूसरों से दान करवाया करूंगी | भाग - लाभांश में वृद्धि करूंगी अर्थात् उसमें और द्रव्य डाल कर उस की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी। अक्षयनिधि की वृद्धि करूगी या दूसरों से कराऊंगी - " यह अर्थ फलित होता है । परन्तु यदि बड्डेस्लामि - इस क्रियापद का सम्बन्ध केवल क्यणिहिं – इस पद के साथ मान लिया जाए और जायं तथा दायंइन दोनों पदों के आगे – काहिमि - करिष्यामि - इस क्रियापद का श्रव्याहार कर लिया जाए तो अर्थ होगा – पूजा किया करूंगी. दान दिया करूंगी, एवं भागं - इस पद के आगे दाहिमि - दास्यामि – इस क्रियापद का अध्याहार करने से - लाभांश का दान दुरंगी अर्थात् अपनी आय का एक अंश दान में दिया करूगी, ऐसा अर्थ भी निष्पन्न हो सकता है, अस्तु ।
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यह है श्रेष्ठभार्या गंगादत्ता के हार्दिक विचारों का संक्षिप्त सार, जिसे प्रस्तुत सूत्र में वर्णित किया गया है । गंगादत्ता के इन्हीं विचारों के उतार चढ़ाव में सूर्य देवता उदयाचल पर उदित हो जाते हैं। और सेठानी गंगादत्ता अपने शय्यास्थान से उठ खड़ी होती है और सेठ सागग्दत्त के पास श्राकर यथोचित शिष्टाचार के पश्चात् रात्रि में सोचे हुए विचार को ज्यों का त्यों सुना देती हैं ।
सेठानी गंगादत्ता के विचारों को सुनकर सेठ सागरदत्त उस से सहमत होने के साथ २ बोले कि प्रिये ! मैं तो तुम से भी पहले इस विचार में निमन था कि कोई ऐसा उपाय सोचा जाए कि जिस के अनुसरण से तुम्हारी गोद भरे और तुम्हें चिरकालाभिलषित माता बनने तथा मुझे पिता बनने का सुअवसर प्राप्त हो, अतः मैं तुम्हें इस की आज्ञा देता हूं. और उस के लिये जिस २ वस्तु की तुम को आवश्यकता होगी. उस का सम्पादन भी शीघ्र से शीघ्र कर दिया जावेगा, तुम निश्चिन्त हो कर अपनी कामनापूरक सामग्री जुटान ।
इरु कथा - संदर्भ से नारीजीवन के मनोगत संकल्पों का भलीभान्ति परिचय प्राप्त हो जाता है । सन्तान के लिये नारीजगत् में कितनी उत्कण्ठा होती है १, तथा उस की प्राप्ति के लिये वह कितनी तुरा अथच प्रयत्नशीला बनती है १, यह भी इस से अच्छी तरह जाना जा सकता है |
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