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श्री विपाक सूत्र
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सप्तम अध्याय
प्रश्न - णो चेव णं श्रहं दारगं वादारियं वा पयामि – (अर्थात् मैंने किसी भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया ) – इस पाठ का, तथा “ – जाता जाता दारगा विणिघायमा वज्र्ज्जति - " (अर्थात् जन्म लेते ही उसे के बच्चे मर जाया करते थे ) इस पाठ के साथ विरोध आता है। प्रथम पाठ का भावार्थ है - सन्तान का सर्वथा अनुत्पन्न होना और दूसरे का अर्थ है - उत्पन्न हो कर मर जाना । यदि उत्पन्न नहीं हुआ तो उत्पन्न हो कर मरना, यह कैसे सम्भव हो सकता है ९, इसलिये ये दोनों पाठ परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं १
उत्तर - नहीं, अर्थात् दोनों पाठों में कुछ भी विरोध नहीं है। प्रथम पाठ में जो यह कहा गया है कि मैंने किसी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया । उसका अभिप्राय इतना ही है कि मैंने आज तक किसी बालक को दूध नहीं पिलाया, उस को जीवित अवस्था में नहीं पाया, उस का मुख नहीं चूमा, उस की मीठी २ तोतली बातें नहीं सुनो और मुझे कोई मां कह कर पुकारने वाला नहीं - इत्यादि तथा उसने उन्हीं माताओं को धन्य बतलाया है जो अपने नवजात शिशुश्रों से पूर्वोक्त व्यवहार करती हैं, न कि जो जन्म मात्र देकर उन का मुख तक भी नहीं देख पातीं, उन्हें धन्य कहा है। इसलिये इन दोनों पाठों में विरोध की कोई आशंका नहीं हो सकती दूसरी बात यह है कि कहीं पर शब्दार्थ प्रधन होता है, और कहीं पर भावार्थ की प्रधानता होती है । सो यहां पर भावार्थ प्रधान है। भावार्थ की प्रधानता वाले अन्य भी अनेकों उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं, जिनका विस्तारभय से प्रस्तुत में उल्लेख नहीं किया जाता । तथापि मात्र पाठकों की जानकारी के लिए एक उदाहरण दिया जाता है
श्री स्थानांग सूत्र के प्रथम उद्द ेश्य में - चउत्पतिहिते कोहे - (चतुषु' प्रतिष्ठितः क्रोधः ऐसा उल्लेख पाया जाता है । परन्तु चौथा भेद - पतिहिते (अप्रतिष्ठितः) यह किया गया है। अब देखिये दोना मं क्या सम्बन्ध रहा ? जब चारों स्थानों में क्रोध स्थित होता है तो वह अप्रतिष्ठित कैसे १, सारांश यह है कि यहां पर भी भावार्थ की प्रधानता है न कि शब्दार्थ की । वृत्तिकार भी लिखते है किआक्रोशादिकारण निरपेक्षः केवल क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः, श्रयं च चतुर्थभेदः जीवप्रतिष्ठितोऽपि श्रात्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठितः उक्तो न तु सर्वथाऽप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्त्वस्याभावप्रसंगात सूत्र २४९ ) – अर्थात् यह चौथा भेद यद्यपि जीव में ही प्रतिष्ठत - अवस्थित होता है, तथापि इसे प्रतिष्ठित कहने का यही कारण है कि यह किसी श्रात्मादि का अवलम्बन कर उत्पन्न नहीं होता, किन्तु दुर्वचनादि कारण की अपेक्षा न रखता हुआ केवल क्रोधवेदनीय के उदय से उत्पन्न होने के कारण इसे अप्रतिष्ठित कहा गया है । परन्तु सर्वथा यह भेद अप्रतिष्टिन नहीं है, क्योंकि यदि यह सर्वथा अप्रतिष्ठित हो जाए तो कोव में चतुः प्रतिष्ठितत्व का अभाव हो जाएगा अर्थात् क्रोध को चतुः प्रतिष्ठित कहना असंगत ठहरेगा, जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है।
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प्रस्तुत सूत्र में - जायनिया - आदि पढ़े गए पदों की व्याख्या निम्नोक्त है
१ - जायनिघ्या - जातनिद्र् ता, - " अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए, उसे जातनिद्रुता कहते हैं ।
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२ - पुत्ररत्तावरतकुड्डु बजागरियाए पूर्वरात्रापरात्र कुटुम्ब जागरिकया ” अर्थात् पूर्वरात्रापररात्र शब्द मध्यरात्रि आधीरात के लिये प्रयुक्त होता है । कुटुम्ब – परिवार सम्बन्धी जारिका - चिन्तन, कुटुम्बजागरिका कहा जाता है । आधीरात के समय की गई कुटुम्बजागरिका पूर्वरात्रापररात्रकुटुम्बजारिका कहलाती है । प्रस्तुत में यह पद तृतीयान्त होने से - आधीरात में किए गए परिवारसम्बन्धी चिन्तन के कारण - इस अर्थ का परिचायक है ।
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