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श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
अत्यन्त मधुर-सरस को कहते हैं । मंजुलप्रभणित शब्द - मंजुल -चित्ताकर्षक प्रभणित-भणनारम्भ है जिस में ऐसे - इस अर्थ का परिचायक है | समुल्लापक - बालभाषण का नाम है । (२) दूसरे मत में-समुल्लापक-को स्वतन्त्र पद माना है और सुमधुर शब्द को मंजुल-प्रभणित का विशेषण माना गया है, और साथ में. प्रभणित - शब्द का-मां मां, इस प्रकार के कर्णप्रिय शब्द - ऐसा अर्थ किया गया है ।
१४ अधन्ना-अधन्या, अप्रशंसनीया-" अर्थात् जो प्रशंसा के योग्य न हो, वह व्यक्ति अधल्या-कहलाती है । तात्पर्य यह है कि स्त्री की प्रशंसा प्रायः सन्तान के कारण ही होती है । संतानविहीन स्त्री आदर का भाजन नहीं बनने पाती -- इन्हीं विचारों से किसी जी वत सन्तति को न प्राप्त करने के कारण गंगादत्ता अपने को अधन्या कह रही है ।
१५-अपुराणा-अविद्यमानपुण्या अथवा अपूर्णा- अपूर्णमनोरथत्वात् - "अर्थात् जो पुण्य से रहित हो वह अपुण्या कहलाती है । तथा-अपुरणा-इस पद का संस्कृत प्रतिरूप अपूर्णा - ऐसा भी उपलब्ध होता है । तब-अपुराणा- इस पद का जिस के मनोरथों- मानसिक संकल्पों की पूर्ति नहीं होने पाई, वह अपूर्णा कहलाती है, ऐसा अर्थ भी हो सकेगा ।
१६-अकयपुराणा - अविहितपुण्या-" अर्थात जिस ने इस जन्म अथवा पूर्व के जन्मों में पुण्यकर्म का उपार्जन नहीं किया हो वह अकृतपुण्या कही जाती है । ___ १७-जायं- पागम् देवपूजाम् - " अर्थात् याग शब्द देवों की पूजा-इस अर्थ का बोधक है ।
१८-दायं-पर्वदिवसादौ दानम्-" अर्थात् पर्व के दिवसों में किये जाने वाले दान को दाय कहते हैं । अथवा किसी भी समय पर दीन दुःखियों को अन्नादि का देना या अन्य किसी सत्कर्म के लिए द्रव्यादि का देना दान कहलाता है ।
१९-भागम् -लाभांशम्-" अर्थात् मन्दिर के चढ़ावे (वह सामग्री जो किसी देवता को चढ़ाई जावे से होने वाले लाभ के अंश को भाग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि मन्दिर में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है, उस से जो मन्दिर को लाभ होता है, उस लाभांश को भाग कहा जाता है ।
२०-अवयणिहिं-- अव्ययं भांडागारम् , अक्षयनिधि वा मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारः क्रियते-" अर्थात् नष्ट न होने वाले देवभण्डार का नाम अक्षयनिधि है, अथवामूलधन देवद्रव्य) जो कि जीणे हुए देवमन्दिर के उद्धार के लिये प्रयुक्त होता है. को भी अक्षयनिधि कहते हैं।
२१-उववाइयं-उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितम् - ईप्सितं वस्तु-" अर्थात् जिस वस्तु की प्रार्थना की जाय वह उपयावित कही जाती है । तात्पर्य यह है कि जो वस्तु ईप्सित-इष्ट हो वह उपयाचित कहलाती है।
प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में उपयाचित शब्द के १-प्रार्थित, अभ्यर्थित, २ -मनौतीअर्थात् किसी काम के पूरा होने पर किसी देवता की विशेष आराधना करने का मानसिक संकल्पऐसे दो अर्थ लिखे हैं।
२२- उवाइणित्तए - उपयाचितु प्रार्थयितुम्-" अर्थात् 'उपयाचितु- यह क्रियापद प्रार्थना करने के लिये, इस अर्थ का बोध कराता है।
अज्झथिए ५-- यहां पर दिये ५ के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १३३
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