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सनम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित
[३९५
पीड़ा से युक्त अर्थात् जिस का हर्ष क्षीण हो चुका हो, उसे ग्लान कहते हैं । ३ – १ व्याधितचिरस्थायी कोट आदि व्याधियों से युक्त व्याधित कहलाता है । अथवा - सद्यप्राणघातक - शीघ्र ही प्राणों का नाश करने वाले ज्वर, श्वास, दाह, अतिसार अर्थात् विरेचन यादि व्याधियों से युक्त व्यक्ति व्याधित कहा जाता है । यदि वाहियाणं – इस पद का बाधितानां - ऐसा संस्कृत प्रतिरूप मान लिया जाए तो उसका अर्थ होगा - उष्ण - गरमी आदि की बिमारी से बाधित - पीड़ित व्यक्ति । ४ - रोगी
चिरस्थायी - देर तक न रहने वाले ज्वर आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है । अथवा चिरघाती अर्थात् देर से विनाश करने वाले ज्वर, अतिसार आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है । जिन का कोई नाथ - स्वामी हो वह सनाय तथा जिन का कोई स्वामी- रक्षक न हो वह नाथ कहलाता है ।
गेरु रंग वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक सन्यासी का नाम श्रमण है । चारों वर्णों में से पहले वर्ण वाले को ब्राह्मण कहते हैं । अथवा - याचक विशेष को ब्राह्मण कहते हैं । भिक्षुकभिक्षावृत्ति से आजीविका चलाने का नाम है । हाथ में कपाली - खोपरी रखने वाले सन्यासी के लिये कटक शब्द प्रयुक्त होता है । कार्पेटिक शब्द जीर्ण कंथा - गोदड़ी को धारण करने वाला, अथवा भिखमं गा - इन अर्थों का परिचायक है । श्रातुर- जिस को अन्य वैद्यों ने चिकित्सा के अयोग्य ठहराया हो, अथवा - जिसे असाध्यरोग हो रहा हो उसे श्रातुर कहते हैं ।
इस के अतिरिक्त यहां पर इतना और ध्यान रहे कि मूल में मत्स्यादि जलचर और कुक्कुटादि स्थलचर एवं कपोतादि खेचर जीवों के नामोल्लेख करने के बाद भी " - जलयर - थलयर - " आदि पाठ दिया है, उस का तात्पर्य यह है कि पहले जितने भी नाम बताये गए हैं, उनका संक्षेपतः वर्णन कर दिया गया है और उनके अतिरिक्त दूसरों का भी ग्रहण उक्त पाठ से समझना चाहिये । इसलिये यहां पर पुनरुक्ति दोष की श्राशंका नहीं करनी चाहिये ।
- रिद्ध० - यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन पृष्ठ १३८ पर किया जा चुका है । तथा “ – राईसर० जाव सत्थवाहाणं " यहां पठित जाव - यावत् पद से “ – तलवर- माटुंबिय कोडु' बिय- इब्भ - सेट्ठि --" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । राजा प्रजापति का नाम है । ईश्वर आदि शब्दों की व्याख्या पृष्ठ १६५ पर लिखी जा चुकी है ।
- मच्छमंसेहिं य जाव मयूरमं सेहिं - यहां पठित जाव - यावत् पद से कच्छभमंसेहिं य, गाहमंसेहिं य, मगरमंसेहिं य, सुसुमारमंसेहिं य, अयमंसेहिं य, एलमंसेहिं य, रोज्कमंसेहिं य, सूरमंसेहिंय. मिगमंसेहिं य, ससयमंसेहिं य, गोमंसेहिं य, महिसमंसेहिं य. तित्तिरमंसेहिं य. वहकमंसेहिं य, लावकमंसेहिं य, कवोतमंसेहिं, य, कुक्कुडमंसेहिं य-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मांस आदि पदों का अर्थ पृष्ठ ३८८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र विभक्ति का है. प्रकृत्यर्थ में कोई भेद नहीं हैं।
(१) वाहियाणं - ति व्याधिश्चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः स संजातो येषां ते व्याधिताः । वाधिता वा उष्णादिभिरभिभूताः अतस्तेषाम् । अथवा - व्याधितानां – सद्योघाति – ज्वरश्वासकासदाहातिसार भगंदरशूलाजीर्णव्याधियुक्तानामित्यर्थः । (२) रोगियाण - यत्ति संजाताचिरस्थायिज्वरादिदोषाणाम्, अथवा चिरघातिज्वरातिसारादिरोगयुक्तानामित्यर्थः ।
(३) – समणणय, त्ति - गैरिकादीनाम् । (४) आउराण य - चिकित्साया विषयभूतानाम् अथवा असाध्य रोगपीडितान ( मित्यर्थः ।
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