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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित
१ – शूनहस्त - जिस के हाथ सूजे हुए हों वह शूनहस्त कहलाता है । ११ - शूनपाद - जिस के पांव सूजे हुए हों उस को शूनपाद कहा जाता है । १२ - शटितहस्तांगुलिक - जिस के हाथों की अंगुलियां सड़ गई हैं, उसे शक्तिहस्तांगुलिक कहा जाता है । सड़ने का अर्थ है - किसी पदार्थ में ऐसा विकार उत्पन्न होना कि जिस से उस में दुगंध आने लग जाये ।
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१३- शतगुलिक जिस के पांव की अंगुलियां सड़ जावें, वह शटितपादांगुलिक कहलाता है ।
१४ - शटितकर्णनासिक - जिस के कर्ण - कान और नासिका - नाक सड़ जाऐं उसे शटितकनासिक कहते हैं ।
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१५ - रसिका और पूय से थिविधिवायमान - अर्थात् व्रण से निकलता हुआ दुर्गन्धपूर्ण श्वेत खून रसिका कहलाता है । पूय-पी का नाम है । थिवथिव शब्द वा व्यक्ि थिविथिवायमान कहलाता है । तात्पर्य यह है कि रसिका और पूय के बहने से वह व्यक्ति थिव २ शब्द कर रहा था ।
१६ - प्रणमुखकृम्युत्त द्यमानप्रग लत्पूयरुधिर - इस समस्त पद के व्रणमुख, कृमि-उत्तु -- द्यमान, प्रगलत्पूयरुधिर, ये तीन विभाग किये जा सकते हैं । व्रण- घाव - ज़ख्म का नाम है । मुख प्रभाग को कहते हैं । तब व्रणमुख शब्द से व्रण का अग्रभाग - यह अर्थ फलित हुआ । कृमियोंकीड़ों से उत्तुद्यमान- पीड़ित, कृम्युक्त द्यमान कहा जाता है । जिस के पूथ - पीब और रुधिर - खून कह रहा है, उसे प्रगलत्पूयरुधिर कहते हैं । अर्थात् उस व्यक्ति के कीड़ों से अत्यन्त व्यथित व्रण - मुखों से पीव और रुधिर बह रह रहा था । व्रणमुखानि कृमिभिरुतुद्यमानानि ऊर्ध्वं व्यथ्यमानानि प्रगलत् पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तमिति वृत्तिकारोऽभयदेवसूरिः ।
कहीं पर - वणमुहकिमि उन्नुयं तपगलं तपूयरुहिरं - ( व्रणमुखकम्युन्नुदत्प्रगलत्पूय रुधिरम्, व्रणमुखात् कृमयः उन्नुदन्तः प्रगलन्ति पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तम् । इदमुक्तं भवति - यस्य मुखात् कृमयो बहिर्निःसरन्ति उत्पत्य पतन्ति पूरुधिराणि च प्रगजन्ति तमित्यर्थः) - ऐसा पाठान्तरे भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है - जिस के घावों के अग्रभाग से कीड़े गिर रहे थे और पीत्र तथा रुधिर भी बह रहा था । १७ - 'लाला प्रगलत्कर्णनास – इस पद में प्रयुक्त हुए लाला शब्द का कोषों में यद्यपि मुंह का पानी (लार) अर्थ किया गया है, परन्तु वृत्तिकार के मत में उसका क्लेदतन्तु यह अर्थ पाया जाता है । जो कि उपयुक्त ही प्रतीत होता है । कारण कि - कलेदतन्तु यह समस्त शब्द है । इस में क्लेद का प्रयोग - नमी (सील), फोड़े का बहाव और कष्ट - पीडा, इन तीन अर्थों में होता है । तथा तन्तु शब्द का - डोरा, सूत, तार, डोरी, मकडी का जाला, तांत, सन्तान, जाति, जलजन्तुविशेष, इत्यादि अर्थों में होता है । प्रकृत में कलेद शब्द का "फोड़ े का बहाव” यह अर्थ और तन्तु का "तार" यह अर्थ ही अभिमत है। तत्र क्लेदतन्तु का प्रण - फोड़े के बहाव की तारें" यह अर्थ निष्पन्न हुआ, जोकि प्रकरणानुसारी होने से उचित ही है, क्योंकि लार तो मुंह से गिरती हैं, नाक और कान से नहीं । फोड़ों के बहाव की तारों से जिसके कान और नासिका गल गये हैं,
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(१) लालाभि: क्लेदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कर्णौ नासा च यस्य स तथा तमिति वृत्तिकारः । (२) देखो - संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ - पृष्ठ ३४७ (प्रथम संस्करण) ।