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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित
[३७७
आजीविका । कप्पेमाणं - चला रहा था, उस पुरुष को । पासति - देखते हैं । तदा-तब । भगवं- भगवान् । गोयमे - गौतम स्वामी । उच्चणीयमज्झिमकुलाई – ऊँच (धनी), नीच (निर्धन ) तथा मध्यम (न ऊँच तथा न नीच अर्थात् सामान्य ), घरों में । जाव - यावत् । श्रति-भ्रमण करते हैं । अहापज्जन्त्त - पर्याप्त र्थात् यथेष्ट आहार । गेराहति २ ता - ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके । पाडलि० - पाटलिषंड नगर से । पडिनि० – निकलते हैं, निकल कर । जेणेव जहां | समणे - श्रमण
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| भगवं० - भगवान्
महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आते हैं आकर । भक्तपाणं - भक्तपान की । लोपति - श्रालोचना करते हैं, तथा । भत्तपाणं – भक्तपान को । पडिदंसेति २ – दिखलाते हैं, दिखाकर । सम णेणं – श्रमण भगवान् से । श्रब्भपुराणाते समाणे - श्राज्ञा को प्राप्त किए हुए । अप्पा - आत्मा से अर्थात् स्वयं । विलमिव पन्नगभूते - बिल में जाते हुए पन्नक – सर्प की भान्ति । श्राहारमाहारेइ - आहार का ग्रहण करते हैं, तथा । संजमेणं - संयम, और तवसा - तप से । अप्पा - - श्रात्मा को । भावेमाणे – भावित - वासित करते हुए । विहरति- विचरते हैं । मूलार्थ - - उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी जी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए पाटलिषण्ड नगर में जाते हैं, उस पाटलिषण्ड नगर में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहां एक पुरुष को देखते हैं। जिस की दशा का वर्णन निम्नोक्त है
वह पुरुष कण्डू रोग वाला, कुष्ठ रोग वाला, जलोदर रोग वाला, भगंदर रोग वाला, अर्शवासीर का रोगी, उस को कास और श्वास तथा शोथ का रोग भी हो रहा था, उस का मुख सूजा हुआ था, हाथों और पैरों फूले हुए थे, हाथ और पैर की अंगुलिएँ सड़ी हुईं थीं, नाक और कान भी गले हुए थे, रसिका और पीब से rिafra शब्द कर रहा था, कृमियों से उत्तद्यमान - अत्यन्त पीडित तथा गिरते हुए पीब और रुधिर वाले व्रणमुखों से युक्त था, और न क्लेदतन्तुओं से गल चुके थे, बार २ पूयकवल, रुधिरकवल तथा कृमिकल का मन कर रहा था, और जो कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था, उस के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे, सिर के त्यन्त बिखरे हुए थे. टाकियों वाले वस्त्र उसने ओह रखे थे । भिक्ष का पात्र तथा जल का पात्र हाथ में लिए हुए घर २ में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी आजीविका चला रहा था । भगवान गौतम स्वामी ऊँच नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए यथेष्ट भिक्षा लेकर पाटलिषंड नगर से निकल कर जहां श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आये, आकर भक्त-पान की आलोचना की और लाया हुआ भक्तपान-आहार पानी भगवान को दिखलाया, दिखलाकर उन की आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए भान्ति बिना चबाये अर्थात् बिना रस लिये ही आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपने आत्मा को भावित-वासित करते हुए कालक्षेप कर रहे हैं ।
टीका - संयम और तप की सजीव मूर्ति भगवान् गौतम स्वामी सदैव की भान्ति आज भी षष्ठतप- - बेले के पारणे के निमित्त पाटलिषण्ड नगर में भिक्षार्थ जाने की प्रभु से आज्ञा मांगते हैं । आज्ञा मिल जाने पर उन्हों ने पाटलिषंड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश किया एक ऐसे व्यक्ति को देखा कि जो कंडू, जलोदर, अर्श, भगंदर, कास, श्वास और शोथादि रोगों में अभिभूत हो रहा था । उस के हाथ पांव और मुख सूजा हुआ था । इतना ही नहीं किन्तु उ
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