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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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परिसा-परिषद् । जाव-यावत् । गो-नागरिक और राजा चला गया ।
मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय हो हे जम्बू ! उस काल और उस सयय में पाटलिपंड नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहां वनषंड नामक उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का स्थान था। उस नगर में महाराज सिद्धार्थ राज्य किया करते थे । पाटलिपंड नगर में सागरदत्त नाम का एक धनाट्य, जो कि उस नगर का बड़ा प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था, सार्थवाह रहता था । उस की गंगादत्ता नाम की भार्या थी । उनके अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर गला उम्बरदत्त नाम का एक बालक था।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वनषंड नामक उद्यान में पधारे । नागरिक लोक तथा राजा उन के दर्शनार्थ नगर से निकले और धर्मोपदेश सुन कर सब वापिस चले गये।
टीका-प्रस्तुत सूत्र में सप्तम अध्ययन के प्रधान नायकों के नामों का निर्देश किया गया है। उन में नगर, उद्यान और यक्षायतन, उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पधारना, उनके दर्शनार्थ नगर की जनता और नरेश के श्रागमन तथा धर्मश्रवण आदि के विषय में पूर्व वणित अध्ययनों की भान्ति ही भावना कर लेनी चाहिये । नामगत भिन्नता को सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है।
बिन्दु से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ १२. पर दी जा चुकी है। तथा-बहीण-यहां के बिन्द से अभिमत पाठ भी पृष्ठ १२० पर लिख दिया गया है। तथा समोसरणं परिसा जाव गो-यहां के जाव-यावत् पद से-निग्गया, राया निग्गो , धम्मो कहिओ, परिसा राया य पडि --इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ २०४ पर लिखा जा चुका है।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के उपदेशामृत का पान करने के अनन्तर राजा तथा जनता के अपने अपने स्थानों को वापिस लौट जाने के पश्चात् क्या हुआ? अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं -
मूल-'तेणं कालेणं २ भगवं गोतमे तहेव जेणेव पाडालसंडे णगरे तेणेव उवागच्छति २ पाडलिमंड णगरं पुर्गथमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविति, तत्थ णं पासति
(१) छाया- तस्मिन् काले २ भगवान् गौतमस्तथैव यत्रैव पाटलिपंडं नगरं तत्रैवोपागच्छति २ पाटलिषंडं नगरं पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविशति । तत्र पश्यत्येकं पुरुषं कच्छूमन्तं कुष्ठिकं दकोदरिक भगंररिकमर्शसं' कासिकं श्वासिकं शोफवन्तं शूनभुखं शून हस्तं शूनपादं शटितहस्तांगुलिक टितपादांगुलिकं शटितकण नासिकं रसिकया च पूयेन च थिविथिवायमानं व्रणमुरूकृम्युत्तामानप्रगलत्पूयरुधिर लालाप्रगलत्कर्णनासम्, अभीक्ष्णं २ पूयकवलाँच रुधिर कवलाँच कृमिकवलाँश्च वमन्तं कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्तं मक्षिकाप्रधानसमूहे नगन्बीयमानमार्गे स्फुटितात्यर्थशीर्षे दंडिखंडवर में खंडमल्लकखंडघट. कहस्तगतं गेहे २ देहिबलिकया वृत्ति कल्पयन्तं पश्यति २ तदा भगवान् गौतमः उच्चनीचमध्यमकुलान्यटति यथापर्याप्त गृह्णाति २ पाटलिपंडात् प्रतिनिष्कामति २ यत्रैव श्रमणो भगवान्ः भक्तपानमालोचयति भक्तपानं प्रतिदशयति २ श्रमणेनाभ्यनुज्ञातो सन बिलमिव पन्नगभूतः अात्मनाऽऽहारमाहारर्यात, संयमेन तपसा, आत्मानं भाव यन् विहरति ।
(२) अासि अस्य विद्यन्ते इति अर्शसः तमितिभावः । अर्थात् बवासीर का रोगी ।
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