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सप्तम अध्याय 1
हिन्दी भाषा टीका सहित
[३८१
शोर्षः शिरोवेदनया व्यथितमस्तक:-- इस प्रकार है । अर्थात् भयंकर शिर की पीड़ा से जिस का मस्तक मानों फूा जा रहा था वह ।
२४- 'दंडिखण्डवसन-जिस के वस्त्र थिगली वाले हैं । थिगली का अर्थ है वह टुकड़ा जो किसी फटे हुए कपड़े आदि का छेद बन्द करने के लिये लगाया जाए, पैबन्द । पंजाबी भाषा में जिसे टाकी कहते हैं । अर्थात् उस पुरुष ने ऐसे वस्त्र पहन रखे थे जिन पर बहुत टाकिये लगी हुई थीं।
अथवा-दण्डी-कथा (गुदड़ी को धारण करने वाले भितुविशेष की तरह जिसने वस्त्रों के जोड़े हुए टुकड़े प्रोढ रखे थे वह दण्डिखण्डवसन कहलाता है।
२५ - खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत-खण्डमल्लक भिक्षापात्र या फूटे हए प्याले का नाम है । भिक्षु के जलपात्र या फूटे हुए घड़े को खण्डघटक कहा जाता है । जिस पुरुष के हाथ में खण्डमल्लक और खण्डघटक हो उसे खण्डमल्लक वण्डघटकहस्तगत कहते हैं ।
___ कहीं- 3 वराडमल्लखण्डहत्थगय -- ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है । इस का अर्थ है - जिस ने खाने और पानी पीने के लिये अपने हाथ में दो कपाल – मिट्टी के बर्तन के टुकड़े ले रखे थे।
२६-देहविलका- का अर्थ कोष में भिक्षावृत्ति -- भीख द्वारा आजीविका ऐसा लिखा है । किन्तु वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि जी इस का अर्थ "- देहि बलिं इत्यस्याभिधानं प्राकृतशैल्या देहबलिया तीए देहंबलियार -" इस प्रकार करते हैं । इस का सारांश यह है, कि मुझे बलि दो-भोजन दो, ऐसा कह कर जो "- वित्तिं कप्पेमाणं -" आजीविका को चला रहा है, उस को- यह अर्थ निष्पन्न होता है, और बलि शब्द का प्रयोग-देवविशेष के निमित्त उत्सर्ग किया हुआ कोई खाद्य पदार्थ, और उच्छिष्ट - इत्यादि अर्थों में होता है। प्रकृत में तो बलिराब्द से खाद्य पदार्थ ही अभिप्रेत है । फिर भले ही वह देव के लिये उत्सर्ग किया हुआ हो अथवा उच्छिष्टरूप से रक्खा हुआ हो ।
कहीं पर देहबलियार इस पाठ के स्थान पर ... देहबलियार-देहबल्किया-ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। देह- शरीर के निर्वाह के लिये बलिका-आहार का ग्रहण देहबलिका कहलाता है।
कच्छमान्, कष्ठिक-इत्यादि पदों को प्रथमान्त रख कर उन का अर्थ किया गया है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ये सब पद द्वितीयान्त तथा देहबोलका शब्द तृतीयान्त है। अतः अर्थ -- संकलन करते समय मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त तथा तृतीयान्त की भावना कर लेनी चाहिये ।
"-गोतमे तहेव जेणेव-" यहां पठित तहेव-तथैव पद पृष्ठ ५२२ तथा १२३ पर पढ़े गये "-छठंछट्टणं अणिक्षितणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ. तए गणं से भगवं गोयमे छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पारिसीए सज्झायं करेति २ वीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-" से लेकर "-दिट्ठीए पुरा रियं सोहेमाणे-" इन पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिषण्ड नगर का ।
"-पाडलिक' तथा ' पडिनि० जेणेव समणे भगवं0- "इन बिन्दुयुक्त पाठों से क्रमश:
(१) दण्डिखण्डानि - स्यूतजीर्ण पटनिर्मितानि वसनानि एव वसनानि वस्त्राणि, यस्य स दण्डिखण्डवसनः, तमिति भवः । (२) दण्डिखण्डवसनं-दण्डी कन्थाधारी भिक्षुविशेषः तद्वत् खण्डवसनयुक्तम् । (३) खण्डमल्लखण्डहस्तगतम् - अशनपानार्थ शरावखण्डद्वययुक्तहस्तम् ।
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