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२१२]
श्री विपाक सूत्र -
[तीसरा अध्याय
पुश्मिताले नाम नगरे होत्था, 'रिद्ध० । तत्थ णं पुरिमताले उदिए नामं राया होत्था 'महया० । तत्थ एणं पुरिमताले निएणए णाम अंडयवाणियए होत्था, अड्ढे जाव अपरिभूते, अहम्मिए
जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं णिएणयम्स अंडयवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिएणभतिभरवेयणा कल्लाकल्लिं कोदालियाओ य पत्थियापिडए य गेएहन्ति, पुरिमतालस्स नगरस्स परिपेरंतेसु वहवे काइअडए य घुइअंडए य पारेवइ-टिट्टिभि-बांग-मयूरीकुक्कुडि-अंडए य अन्नेसिं चेव बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं अडाई गेएहति गेण्हेत्ता पत्थियापिडगाइ भरेंति २ जेणेव निएणए अडवाणियए तेणेव उवा० २ निगणयस्स अंडवाणियगस्स उवणेति । तते णं तस्स निएणयस्स अंडवाणियगस्स बहवे पुरिमा दिएणभइ० बहवे काइडए य "जाव कुक्कुडि-अंडए य अन्नेसि च बहूणं जलयर-थलयरखहयरमाईणं अडए तवएसु य कवन्लीसु य कंदुसु य भज्जणएसु य इंगालेसु य तलेंति भज्जेंति सोल्लिंति तलेता भज्जेता सोल्लंता य रायमग्गे अन्तरावणं सि अडयपणिएणं वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति । अप्पणा वि य णं निएणयए अंडवाणियए तेहिं बहूहिं काइ-मंडएहि य जाव कुक्कुडि-अडएहि य सोन्लेहि तलिएहिं मज्जिएहिं सुरं च' पण्येन वृत्ति कल्पमाना विहरन्ति । अात्मनापि च स निर्णयोऽण्डवाणिजस्तैर्बहुभिः काक्यण्डेश्च यावत् कुक्कुट्यण्डैश्च पक्क स्तलितैभृष्टः सुरां च ५ आस्वादयन् ४ विहरति । ततः स निर्णयोऽएडवाणिज एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कर्म समय॑ एक वर्षसहस्रं परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा तृतीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टसप्तसागारोपमस्थितिकेषु नरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्न: ।
(१) " रिद्ध०-" यहां के बिन्दु से जिन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, उन के सम्बन्ध में पृष्ठ १३८ पर लिखा जा चुका है ।
(२) “ महया० " यहां के बिन्दु से क्या अपेक्षित है ? इस का उत्तर पृष्ठ १३८ पर दिया जा चुका है।
(३) "अड्ढे जाव अपरिभूते" यहां पठित-जाव-यावत्-पद से जिन पदों का आश्रयण सूत्रकार को अभिमत है उनका विवण पृष्ठ १२० पर दिया जा चुका है ।
(४) "अहम्मिए जाव दुप्पडियाशंदे" यहां पठित'- जाव-यावत् -' पद से ग्रहण किये जाने वाले पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर किया गया है ।
(५) यहां पठित-जाव-यावत्-' पद से "-घूइ-अण्डए, पारेवइअण्डए, टिहिभि-अण्डए बगि-अण्डए, मयूरी-अण्डए-" इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, तथा "-काइअण्डएहि य जाव कुक्कुडि-अण्डएहि-" यहां पठित '-जाव-यावत्-' पद से पूर्वोक्त पदों का ही आश्रयण करना चाहिए, यहां मात्र प्रथमा और तृतीया विभक्ति का अन्तर है ।
(६)-सुरं च ५-यहां पर ५ इस अंक से "- मधुच मेरगं च जातिं च सीबुंच पसन्नं च' इन पदों का ग्रहण समझना । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १४४ पर की जा चुकी है।
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