________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
चतुथं अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
इस प्रकार काल को प्राप्त होकर वह रत्नप्रभा नाम की पहली नरक में जाकर जन्म लेगा। वहां पर नरकजन्य तीव्र वेदनायों का अनुभव करेगा।
नरक की भवस्थिति को पूरा करने के बाद वह वहां से निकल कर राजगृह नगर के एक चांडालकुल में युगलरूप में उत्पन्न होगा अर्थात मातंग की स्त्री के गर्भ से दो जीव उत्पन्न होंगे, एक बालक दूसरी कन्या। उनके माता पिता बालक का नाम शकट और कन्या का सदर्शना रक्खेंगे । जब दोनों बालभाव को त्याग कर युवावस्था में आवेंगे तो उनका शरीरगत सौंदर्य अथच रूप--लावण्य नितान्त आकर्षक होगा । उसमें भी सदर्शना का यौवन-विकास इतना अधिक स्फुट और मोहक होगा कि उसके अद्वितीय रूप-सौन्दर्य से मोहित हुअा उसका सहोदर ही उसे अपनी सहधर्मिणी बना कर काम – वासना को उपशान्त करने का नीचतम उद्योग करेगा। तात्पर्य यह है कि सुदर्शना के रूप-लावण्य में अत्यधिक मूञ्छित हुया शकट कुमार परम पुनीत भगिनीसम्बन्ध का भी उच्छेद कर डालेगा। संक्षेप में या दूसरे शब्दों में कहें तो-बाल्य-काल के भाई बहिन यौवन-काल में पति पत्नी के रूप में अाभासित होंगे।
तदनन्तर इस प्रकार के सभ्यजन विगर्हित कार्यों को करता हुआ शकट कुमार स्वयं कूटग्राही अर्थात् धोखे से जीवों को फंसाने वाला, बन बैठेगा । कटग्राही बन जाने के बाद शकट कमार की पापपूर्ण प्रवृत्तियों में और भी प्रगति होगी, तथा अन्त में अधिक सावध व्यवहार से उपाजित किये पापकमा के प्रभाव से वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में जन्म लेगा।
पाठकों को स्मरण होगा कि सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का वर्णन कर आये हैं. तब सूत्रकार ने प्रकृत सूत्र को संक्षिप्त करने के उद्देश्य से पूर्व वर्णित सूत्रपाठ का स्मरण कराने के लिये "संसारो तहेव जाव पुढवीए०" यह उल्लेख कर दिया है । इसका तात्पर्य यह है कि शकट कुमार का संसारभ्रमण अर्थात् नरक से निकलकर अन्यान्य गतियों में गमनागमन करना इत्यादि तथैव- उसी प्रकार जान लेना अर्थात् मृगापुत्र की भान्ति समझ लेना। शेष जो अन्तर है उसे सूत्रकार स्वयं ही "ततो अणंतरं उहित्ता, इत्यादि शब्दों में कह रहे हैं । अर्थात् शकट कुमार का जीव नरक से निकल कर वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में अवतरित होगा, वहां मत्स्यविघातकों के द्वारा मारा जाने पर वह उसी नगरी के एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां समुचित रीति से पालन पोषण और संवर्द्धन को प्राप्त होता हुआ वह युवावस्था में किसी स्थविर-वृद्ध जैनसाधु के सहवास में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और वैराग्यभावित अन्तःकरण से अनगारवृत्ति को धारण कर अन्त में सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां की देवभव - सम्बन्धी स्थिति को पूरा कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, और वहां पर यथाविधि संयम के अाराधन से अपने समस्त कर्मों का अन्त करके परम दुलभ निर्वाण पद को उपलब्ध करेगा।
मानव प्राणी की यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट तथा उसका पर्यवसान कहां और किस प्रकार से होता है ? यह सब शकट कुमार के कथासंदर्भ से भली भान्ति विदित हो जाता है । में इतना शारीरिक बन कहां है कि वह इस प्रकार के नरकसदृश दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर पृष्ठ २७३ पर दिया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभनसेन के सम्बन्ध में विचार किया गया है जबकि प्रस्तुत में शकट कुमार के सम्बन्ध में ।
For Private And Personal