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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
अर्थात् वर्ष २ में किये जाने वाले अश्वमेध यज्ञ को जो सौ वर्ष तक करता है, अर्थात् सौ वर्ष में जो लगातार सौ यज्ञ कर डालता है उसका और मांस न खाने वाले का पुण्य फल समान होता है ।
(५) प्राणिधातात्तु यो धर्ममाहत मूढमानसः ।
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स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥ १२॥
(पुराण)
अर्थात् प्राणियों के नाश से जो धर्म की कामना करता है वह मानों श्यामवर्ण वाले सर्प के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है ।
(६) एकतः काञ्चनो मेरु, बहुरत्ना वसुंधरा ।
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एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥१॥
अर्थात् - [- एक और मेरु पर्वत के समान किया गया सोने और महान् रत्नों वाली पृथ्वी का दान रक्खा जाए तथा एक और केवल प्राणी की गई रक्षा रक्खो जाए, तो वे दोनों एक समान ही है।
(७) तिलभर मछली खाय के, करोड़ गऊ करे दान ।
काशी करवत लै मरे, तो भी नरक निदान ॥ १ ॥ मुसलमान मारे करद से, हिन्दू मारे तलवार ।
( कबीरवाणी )
कहे कबीर दोनों मिली, जायें यम के द्वार ॥ २ ॥ (८) जे रस लागे कापड़, जामा होए पलीत | जो रक्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चीत ॥ १ ॥ (सिक्ख शास्त्र) अर्थात् यदि हमारे वस्त्र से रक्त का स्पर्श हो जाए, तो वह वस्त्र अपवित्र हो जाता है । किन्तु जो मनुष्य रक्त का ही सेवन करते हैं, उनका चित्त निर्मल कैसे रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं । इत्यादि अनेकों शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं. जिन में स्पष्टरूप से मांसाहार का निषेध पाया जाता है । श्रतः सुखाभिलाषी विचारशील पुरुष को मांसाहार जैसे दानवी कुकर्म से सदा दूर रहना चाहिये । अन्यथा परिणक नामक छागलिक - कसाई के जीव की भांति नरकों में अनेकानेक भीषण यातनायें सहन करने के साथ २ जन्म मरण जन्य दुस्सह दुःखों का उपभोग करना पडेगा । (२) प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथासन्दर्भ से दूसरी प्रेरणा ब्रह्मचर्य के पालन की मिलती है । ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना एक अल्पज्ञ व्यक्ति के वश की बात नहीं है । सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित शास्त्र इस की महिमा पुकार २ गा रहे हैं। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र के छठे अध्याय में लिखा है
तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं अर्थात् तर नाना प्रकार के होते हैं, ही सर्वोत्तम तप है । ब्रह्मचर्य की महिना महान है। मन वचन और काया के चर्य पालने से मुक्ति के द्वार सहज में ही खुल जाते हैं ।
देवदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्स किन्नरा |
बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥
१६ ॥ (उत्तराध्ययन सूत्र श्र० १६ ) अर्थात् देवता ( वैमानिक और ज्योतिष्क देव), दानव ( भवन पतिदेव ), गन्धर्व (स्वरविद्या
परन्तु सभी तपों में ब्रह्मचर्य द्वारा विशुद्ध ब्रह्म