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३६६]
श्री विपाक सूत्र
अध्याय
महाराज श्रीदाम के चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर उसने कहा - कि महानुभाव ! तुम महाराज
विश्वस्त सेवादार हो । तुम्हारा उन के पास हर समय बेरोकटोक आना जाना है । तुम्हारे लिये वहां किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, तब यदि तुम मेरा एक काम करो तो मैं तुम्हें आधा राज्य दे डालंगा । तुम भी मेरे जैसे बन कर मानन्द अनायासप्राप्त राज्यश्री का यथेच्छ उपभोग करोगे । तम जानते हो कि मैं इस समय युवराज हूँ । महाराज के बाद मेरा ही इस राज्यसिंहासन पर सर्वे -
अधिकार होगा। इसलिये यदि तम मेरे काम में सहायक बनोगे तो मैं भी तुम को हर प्रकार में सन्तुष्ट करने का यत्न करूंगा।
दसरी बात यह है कि महाराज को तम पर पूर्ण विश्वास है, वह अपना सारा निजी काम तुम से ही कराते हैं । इस के अतिरिक्त उन का शारीरिक उपचार भी तुम्हारे ही हाथ से होता है, इसलिये मैं समझता हूँ कि तुम ही इस काम को पूरा कर सकते हो, और मुझे भी तुम पर पूरा भरोसा है। इसलिये मैं तुम से ही कहता हूं कि तुम जिस समय महाराज का क्षौर-हजामत बनाने लगो तो उस समय इधर उधर देख कर तेज़ उस्तरे को महाराज की गरदन में इतने जोर से मारो कि उन की वहीं मृत्यु हो जाए, इत्यादि ।
चित्र ने उस समय तो नन्दिषेण के इस अनुचित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, कारण कि उस के सामने जो उस समय श्राधे राज्य का प्रलोभन रक्खा गया था. उस ने उस के विवेक चक्षुओं पर पट्टी बांध दी थी और वह आधे राज्य के शासक होने का स्वप्न देख रहा था। परन्तु जब वह वहां से उठ कर आया तो दैवयोग से उस के विवेकचा खुल गये और वह इस नीचकृत्य से उत्पन्न होने वाले भयंकर परिणाम को प्रत्यक्ष देखने लगा। देखते ही वह एक दम भयभीत हो उठा । तात्पर्य यह है कि उस के अन्त:करण में वहां से आते ही यह आभास होने लगा कि इतना बड़ा अपराध । वह भी सकारण नहीं किन्तु एक निरापराधी अन्नदाता की हत्या, जिस ने मेरे और राजकुमार के पालण पोषण में किसी भी प्रकार की त्रुटि न रक्खी हो, उस का अवहनन क्या मैं राजकुमार के कहने से करू १, क्या इसी का नाम कृतज्ञता है ?, फिर यदि इस अपराध का पता कहीं महाराज को चल गया, जिस की कि अधिक से अधिक सम्भावना है, तो मेरा क्या बनेगा ।, इस विचार-परम्परा में निमग्न चित्र सीधा राजभवन में महाराज श्रीदाम के पास पहुँचा और कांपते हुए हाथों से प्रणाम कर थथलाती हुए जबान से उस ने महाराज को राजकुमार नन्दिषेण के विचारों को अथ से इति तक कह सनाया ।
शास्त्रों में कहा है कि जिस का पुण्य बलवान् है, उसे हानि पहुँचाने वाला संसार में कोई नहीं। प्रत्युत हानि पहुंचाने वाला स्वयं ही नष्ट हो जाता है। कुमार नन्दिषेण ने अपने पिता महाराज श्रीदाम को मारने का जो षडयंत्र रचा, उसमें उसको कितनी सफलता प्राप्त हुई है, यह तो प्रत्यक्ष ही है । वह तो यह सोचे हुए था कि उसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि
| जितने तारे गगन में, उतने दुश्मन होय ।
। कृपा रहे पुण्यदेव की, बाल न बांका होय ॥ | महाराज श्रीदाम के पुण्य के प्रभाव से राजकुमार नन्दिषेण के पास से उठते ही चित्र नापित के विचारों में एकदम तूफान सा आ गया । उस को महाराज के वध में चारों ओर अनिष्ट ही अनिष्ट दिखाई देने लगा । फलस्वरूप वह घातक के स्थान में रक्षक बना । नीतिकारों ने
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