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श्री विपाक सूत्र -
[ पश्चम अध्याय
ज्ञासापूर्ति के निमित्त उक्त वध्य पुरुष के पूर्व भव का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया । भगवान् बोले
गौतम ! इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक समृद्धिशाली सुप्रसिद्ध नगर था । उस में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था । उसका महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जोकि शास्त्रों का विशेष पण्डित था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का विशेष ज्ञाता माना जाता था । महाराज जित - शत्रु की महेश्वरदत्त पर बड़ी कृपा थी । राजपुरोहित महेश्वर दत्त भी महाराज जितशत्रु के राज्यविस्तार और बलवृद्धि के लिये उचितानुचित सब कुछ करने को सन्नद्ध रहता था । इस सम्बन्ध में वह धर्माधर्म या पुण्यपाप का कुछ भी ध्यान नहीं किया करता था ।
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संसार में स्वार्थ एक ऐसी वस्तु है कि जिस की पूर्ति का इच्छुक मानव प्राणी गति से गर्हित आचरण करने से भी कभी संकोच नहीं करता । स्वार्थी मानव के हृदय में दूसरों के हित की मात्र जरा भी चिन्ता नहीं होती; अपना स्वार्थ साधना ही उस के जीवन का महान् लक्ष्य होता है । क्या कहें, संसार में सब प्रकार के अनर्थों का मूल ही स्वार्थ है। स्वार्थ के वशीभूत होता हुआ मानव व्यक्ति कहां तक अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है १, इस के लिये महेश्वर दत्त पुरोहित का एक ही उदाहरण पर्याप्त है । उस के हाथ से कितने अनाथ, सनाथ बलकों का प्रतिदिन विनाश होता ? और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल को स्थिर रखने तथा प्रभावशाली बनाने के निमित्त वे कितने बालकों की हत्या करता १ एवं जीते जी उन के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर निकुड में होमता हुआ कितनी अधिक क्रूरता का परिचय देता है ? यह प्रस्तुत सूत्र में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के बालकों के वृत्तान्त से भली भान्ति के अतिरिक्त जो व्यक्ति बालकों का जीते जी कलेजा निकाल कर उसे लिये उपयोग में लाता है, वह मानव है या राक्षस ? इस का निर्णय
उल्लेख किये गये, ब्राह्मण जाना जा सकता है । इस अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति के विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं ।
सूत्रगत वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मानव प्राणी का जीवन तुच्छ पशु के जीवन जितना भी मूल्य नहीं रखता था और सब से अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार की पापपूर्ण प्रवृत्ति का विधायक एक वेदज्ञ ब्राह्मण था ।
चारों वर्णां में से प्रतिदिन एक २ बालक की अष्टमी, और चतुर्दशी में दो दो, चतुर्थ मास में चार २ तथा छठे मास में आठ २ और सम्वत्सर में सोलह २ बालकों की बलि देने वाला पुरोहित महेश्वरदत्त मानव था या दानव इस का निर्णय भी पाठक स्वयं हो करें ।
उस की यह नितान्त भयावह शिशुघातक प्रवृत्ति इतनी संख्या पर समाप्त नहीं हो जाती थी किन्तु जिस समय अजातशत्रु नरेश को किसी अन्य शत्रु के साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्त होता तो उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रत्येक वर्ण के १०८ बालकों के हृदयगत मांसपिंडों
को निकलवा कर उन के द्वारा शान्तिहोम किया जाता ।
इस के अतिरिक्त सूत्रगत वर्णन को देखते हुए तो यह मानना ही पड़ेगा कि ऐहिक स्वार्थ के चंगुल में फंसा हुआ मानव प्राणी भयंकर से भयंकर अपराध करने से भी नहीं भिकता । फिर भविष्य में उसका चाहे कितना भी अनिष्टोत्पादक परिणाम क्यों न हो १ तात्पर्य यह है कि नीच स्वार्थी से जो कुछ भी अनिष्ट बन पड़े, वह कम है ।
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