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पश्चम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[३२३
पुरोहिते-पुरोहित । अट्ठसयं-१०८ । माहणदारगाणं-ब्राह्मण बालकों । अट्ठसयं-१०८ । खत्तियदारगाणं-क्षत्रिय बालकों । अठ्ठसयं-१०८ । वइस्सदारगाणं-वैश्य बालकों तथा । अट्ठसयं१०८ । सुददारगाणं-शूद्र बालकों को । पुरिसेहिं-पुरुषों के द्वारा । गेराहावेति २ - पकड़वा लेता है, पकड़वा कर । जीवंतगाणं चेव-जीते हुए । तेसिं-उन बालकों के । हिययउंडएहृदयसम्बन्धी मांसपिंडों का । गण्हावेति २-ग्रहण करवाता है, ग्रहण करवा के। जितसत्तु स्सजितशत्रु । रराणो-राजा के लिये । संतिहोम-शांतिहोम । करेति-करता है । तते णं-तदनन्तर। से-वह-जितशत्रु नरेश । परबलं-परबल-शत्रुसेना का । खिप्पामेव-शीघ्र ही । विद्धंसेतिविध्वंस कर देता था। वा-अथवा । पडिसेहिज्जति वा-शत्रु का प्रतिषेध कर देता था, अर्थात् उसे भगा देता था।
मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त, आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों से रहित तथा धन धान्यादि से परिपूर्ण नगर था । उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था । उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों का पूर्ण ज्ञाता था ।
महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य और बल की वृद्धि के लिये प्रतिदिन एक २ ब्राह्मण बालक, एक एक क्षत्रिय बालक, एक २ वैश्य बालक और एक एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था, पकड़वा कर जीते जो उन के हदयों के मांसपिंडों को ग्रहण करवाता था, ग्रहण करवा कर जितशत्रु राजा के निमित्त उन से शान्तिहोम किया करता था ।
तदनन्तर वह पुरोहित अष्टमो और चतुर्दशी में दो दो बालकों, चार मास में चार २ बालकों, छः मास में आठ २ बालकों और संवत्सर में सोलह २ बालकों के हृदयों के मांसपिंडों से शान्तिहोम किया करता । तथा जब २ जितशत्रु नरेश का किसी अन्य शत्र के साथ यद्ध होता तब २ वह-महेश्वरदत्त पुरोहित १०८ ब्रह्म [ बालको, १०८ क्षत्रिय बालकों, १०८ वैश्य बालकों और १०८ शूद बालकों को अपने पुरुषों के द्वार। पकड़वा कर उन के जीते जी हृदय - गत मांस-पिंडों को निकलवा कर जितशत्रु नरेश के निमित्त शान्तिहोम करता । उस के प्रभाव से जितशत्रु नरेश शोघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता ।
टीका-जिज्ञासा की पूर्ति हो जाने पर जिज्ञासु शान्त अथच निश्चिन्त हो जाता है। उस की जिज्ञासा जब तक पूरी न हो ले तब तक उसकी मनोवृत्तिये अशान्त और निर्णय की उधेड़बुन में लगी रहती हैं । भगवान् गौतम के हृदय की भी यही दशा थी । राजमार्ग में अवलोकित वध्य पुरुष को नितान्त शोचनीय दशा की विचार-परम्परा ने उन के हृदय में एक हलचल सी उत्पन्न कर रक्खी थी । वे उक्त पुरुष के पूर्वभव-सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने के लिये बड़े उत्सुक हो रहे थे, इसी लिये उन्हों ने भगवान् से सानुरोध प्रार्थना की, जिस का कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है।
तदनन्तर गौतम स्वामी की उक्त अभ्यर्थना की स्वीकृति मिलने में अधिक विलम्ब नहीं हुअा। परम दयालु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने परमविनीत शिष्य श्री गौतम अनगार की जि.
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