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श्री विपाक सूत्र
[पञ्चम अध्याय
__ हे गौतम ! इस तरह से वृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत दुष्टकर्मों के फल को प्रत्यक्षरूप से अनुभव करता हुआ जीवन बिता रहा है।
टीका- प्रस्तुत सूत्र में स्वोपार्जित हिंसाप्रधान पापकों के प्रभाव से पांचवीं नरक को प्राप्त हुए महेश्वरदत्त पुरोहित को वहां की भवस्थिति पूरी करके कौशाम्बी नगरी के राजपुरोहित सोमदत्त की वसुदत्ता भार्या के गर्भ से पुत्ररूप से उत्पन्न होने तथा सोमदत्त का पत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण उस का वहस्पतिदत्त ऐसा नामकरण करने तथा शतानीक नरेश की मृत्यु के बाद राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए उदयन कुमार का पुरोहित बनने के अनन्तर उदयन नरेश की सहधर्मिणी पद्मावती के साथ अनुचित सम्बन्ध करने अर्थात् उस पर आसक्त होने का दिग्दर्शन कराया गया है, और इसी अपराध में उदयन नरेश की तर्फ से उसे पूर्वोक्त प्रकार से वधस्थल पर ले जा कर प्राण -दण्ड देने के आदेश का भी जो उल्लेख कर दिया गया है वह अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता।
___ प्रस्तुत सूत्र में वृहस्पतिदत्त के नामकरण में जो "--यह बालक सोमदत्त का पुत्र तथा वसुदत्ता का आत्मज है, इसलिये इस का नाम वृहस्पति दत्त रखा जाता है-” यह कारण लिखा है वह उज्झितक और अभमसेन एवं शकटकुमार की भान्ति संघटित नहीं हो पाता, अर्थात् जिस तहर उज्झितक आदि के नामकरण में कार्य कारण भाव स्पष्ट मिलता है वैसा कार्य कारण भाव वृहस्पति दत्त के नामकरण में नहीं बन पाता, ऐसी आशंका होती है । इस का उत्तर यह है कि पहले जमाने में कोई सोमदत्त पुरोहित और उसकी वसुदत्ता नाम की भार्या होगी, तथा उन के वृहस्पति दत्त नाम का कोई बालक होगा । उस के आधार पर अर्थात् नाम की समता होने से माता पिता ने इस बालक का भी वृहस्पति दत्त ऐसा नाम रख दिया हो । अथवा सूत्रसंकलन के समय कोई पाठ छूट गया हो यह भी संभव हो सकता है। रहस्यन्तु केलिगम्यम् ।
इस कथासन्दर्भ से प्रतीत होता कि वृहस्पतिदत्त पुरोहित को उदयन नरेश की तर्फ से जो दण्ड देना निश्चित किया गया है, वह नीतिशास्त्र की दृष्टि के अनुरूप ही है । जो व्यक्ति पुरोहित जैसे उत्तरदायित्व-पूर्ण पद पर नियुक्त हो कर तथा नरेश का पूर्ण विश्वासपात्र बन कर इतना अनुचित काम करे उस के लिये नीतिशास्त्र के अनुसार इस प्रकार का दण्ड विधान अनुचित नहीं समझा गया है ।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम अनगार से कहते हैं कि हे गौतम ! यह वृहस्पतिदत्त पुरोहित अपने किये हुए दुष्कर्मों का ही विपाक - फल भुगत रहा है । तात्पर्य यह है कि यह पूर्व जन्म में महान् हिंसक था और इस जन्म में महान् व्यभिचारी तथा विश्वास -- घाती था। इन्हीं 'महा अपराधों का इसे यह उक्त दंड मिल रहा है। यह इसके पूर्वजन्म का वशान्त
के लिये अनेकानेक मानव प्राणियों का वध किया हो वह कर्मसिद्धान्त के अनुसार इसी प्रकार के दण्ड का पात्र होता है ।
-विराणायपरिणयमित्ते-" इस पद का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ २०३ पर किया जा चुका है । परन्तु वहां उल्लिखित अर्थ के अतिरिक्त कहीं " -विज्ञातं विज्ञानं तत्परिणतमात्र यत्र स विज्ञातपरिणतमात्रः परिपक्यविज्ञान इत्यर्थः-" ऐसा अर्थ भी उपलब्ध होता है । अर्थात् विज्ञात यह पद विशेष्य है और परिणतमात्र यह पद विशेषण है और दोनों में बहुव्रीहि समास है।
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