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३५४7
श्री विपाक सूत्र
[षष्ठ अभ्याय
कितनों को । तंतीहि य-चर्म की रस्सियों के द्वारा । जाव-यावत् । सुत्सरज्जुहि य-सूत्ररज्जुओं से । होस य-हाथों को, तथा । पादेसु य - परों को । बंधावेति २-- बंधवाता है, बंधवाकर । अगड'सि-अवट-कूप में अथवा कूप के समीप गौ, भैंस आदि पशुओं को जल पिलाने के लिये बनाए गए गर्त में । उच्चूल-अवचूल-अधासिर अर्थात् पैर ऊपर और सिर नीचे कर खड़ा किये हुए का । बोलग मज्जन । पज्जेति-- कराता है अर्थात् गोते खिलाता है । अप्पेगतिए -कितनों को। असिपत्त हि य-असिपत्रों - तलवारों से । जाव- यावत् । कल बचीरपत्तहि य-कलंबचीरपत्रों- शस्त्रविशेषों से । पच्छावेति २- तच्छवाता है, तच्छवा कर । खारतेल्लेण-क्षामिश्रित तैल से । अभंगावेति-मर्दन कराता है। अप्पेगतियाणं-कितनों के । णिडालेसु य-मस्तकों में, तथा । अवडूसु य-- कंठमणियों-घंडियों में, तथा । कोप्परेसु य- कूपरों-कोहनियों में । जाणुसु य-जानुयों में, तथा । खलुएसु य-गुल्फों -गिट्टों में । लोहकीलए य-लोहे के कीलों को । कड़सक्कराओ य-तथा बांस की शलाकारों को । दवावेति-दिलवाता है - ठुकवाता है । अलए -वृश्चिककंटकों- बिच्छु के कांटों को । भजावेति-शरीर में प्रविष्ट कराता है । अप्पेगतियाणं - कितनों के । हत्थंगुलियासु य-हाथों की अंगुलियों में, तथा । पायंगुलियासु य-पैरों की अंगुलियों में । कोहिल्लरहिमुद्गरों के द्वारा । सूइश्रो य- सूइऐं । दंभणाणि य - दंभनों अर्थात् दागने के शस्त्रविशेषों को । आयोडावेति २--प्रविष्ट कराता है, प्रविष्ट करा कर । भूमि-भूमि को । कडूयावेति-खुदवाता है । अप्पेगइयाणं-कितनों के। सत्थएहिं-शस्त्रविशेषों से । जाव - यावत् । नखच्छेदणपहि यमखच्छेदनक - नेहरनों के द्वारा । अंग-अंग को । पच्छावेइ - तच्छवाता है। दभेहि य-दर्भोमूलसहित कुशाओं से । कुसेहि य-कुशाओं-मूल रहित कुशाओं से । उल्लवम्महि यआर्द्रचर्मों से । वेढावेति २-बंधवाता है, बंधवाकर । आयवंसि-आतप - धूप में । दलयति २-~ डलवा देता है, डलवाकर । सुक्खे समाणे-सूखने पर । चड़चड़स्स-चड़चढ़ शब्द पूर्वक, उनका । उप्पाडेति-उत्पाटन कराता है । तते णं-तदनन्तर । से-वह । दुज्जोहणे-दुर्योधन । चारगपालएचारकपाल - कारागाररक्षक । एयकम्मे ४-एतत्कर्मा -यही जिस का कर्म बना हुआ था, एतप्रधान- यही कर्म जिसका प्रधान बना हुआ था, एतद्विद्य- यही जिस की विद्या-विज्ञान था, एत - त्समाचार-यही जिस के विश्वासानुसार सर्वोत्तम आचरण था, ऐसा बना हुआ । सुबहुं-अत्यधिक । पावं कम्म-पाप कर्म का । समज्जिणित्ता-उपार्जन कर के । एगतीसं वाससयाई-३१ सौ वर्ष की। परमाउ-परम आयु को । पालइत्ता- पाल कर - भोग कर | कालमासे- कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। काल किच्चा -काल कर के । छठ्ठीए पुढवीए-छठी नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्टरूप से । वावीससागरोवमट्टितिएसु - बाईस सागरोपम की स्थिति वाले । नेरइएसु-नारकियों में । उववन्ने-उत्पन्न हुआ ।
. मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन नामक चारकपाल-कारागार का प्रधान नायक अर्थात् जेलर सिंहरथ राजा के अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थि भेदक, राजापकारी, ऋणधारक, बालघाती,
(१) इस स्थान में-पाणग-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है, जिस का अर्थ है - पानी। तात्पर्य यह है कि दुर्योधन चारकपाल अपराधियों को कूप में लटका कर उन से उस का पानी पिलवाता था।
(२) एक प्रकार के घास का नाम दर्भ या कुशा है । वृत्तिकार की मान्यतानुसार जब कि वह घास समूल हो तो दर्भ कहलाता है और यदि वह मूलरहित हो तो उसे कुगा कहते हैं ।
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