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पञ्चम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
(३३७
विपाक के पांचवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जैसा सुना है वैसा तुम्हें सुनाया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है।
प्रस्तुत अध्ययनगत पदाथ के परिशीलन से विचारशील सहृदय पाठकों को अन्वय-व्यतिरेक से अनेक प्रकार की हितकर शिक्षाए उपलब्ध हो सकती हैं । जिन को जीवन में उतारने से उन्हें अधिक से अधिक लाभ सम्प्राप्त हो सकता है । उन में से कुछ शिक्षाए निम्नोक्त हैं
(१) यदि किसी को कोई अधिकार प्राप्त हो जाय तो उसे चाहिये कि वह महेश्वर दत्त पुरोहित की तरह उस का दुरुपयोग न करे। महेश्वरदत्त पुरोहित ने राज्य में उचित अधिकार प्राप्त करने के अनन्तर भी अपनी हिंसक भावना से जो जो अनर्थ किये, उस का दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है । तथा उस से प्राप्त होने वाली नरकयातनाद्रों के उपभोग का भी ऊपर वर्णन आ चुका है । इसलिये इस प्रकार के जीवन से अधिकारी वर्ग तथा अन्य सामान्यवर्ग को सर्वथा परांमुख रहने का सदा यत्न करना चाहिये ।
(२) संसार में हिंसा के बाद जवन्य पापों में विश्वासघात का स्थान है । मित्रद्रोह या विश्वासघात एवं मित्रपत्नी से अनुचित सम्बन्ध, यह सब कुछ घोर पाप में परिगणित होता है। इस पाप का आचरण करने वाला आत्मा इस लोक और परलोक दोनों में ही दुर्गति का भाजन बनने योग्य होता है । महेश्वर दत्त के जीव ने वृहस्पति दत्त के भव में इस जघन्य आचरण से अपने आत्मा को निकृष्ट कर्ममल से कितना दूषित बनाया ? और किस सीमा तक उस के कटु विपाक का अनुभव किया ? इस का भी ऊपर दिग्दर्शन कराया जा चुका है । उस पर से विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि उन्हें इस प्रकार के पापानुष्ठान से कहां तक पृथक रहने का यत्न करना चाहिये ? और कहां तक कर्तव्यपालन के लिये जागरूक रह कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सदनुष्ठानों को जीवन में उतार कर आत्मश्रेय साधना चाहिये ।
॥ पंचम अध्याय समाप्त ॥
(१) मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः ।
ते जरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥१॥ अर्थात् - मित्रद्रोही-मित्र से द्रोह करने वाला, कृतघ्न--किए गए उपकार को न मानने वाला, और विश्वास का घात करने वाला, ये सब मर कर नरक में जाते हैं, और वहां पर जब तक चन्द्र और सूय हैं तब तक रहते हैं, तात्पर्य यह है कि मित्रद्रोही श्रादि अत्यधिक काल तक अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरकों में रहते हैं, और वहां दु:ख पाते हैं।
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