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श्री विपाक सूत्र -
[पचम अध्याय
३२६]
अन्धे हुए २
क्या
प्रभाव
विषय-वासना के विकट जाल में उसके हुए संसारी जीव अपने नीच स्वार्थ में यह नहीं समझते कि जो काम हम कर रहे हैं, इस का हमारी आत्मा के ऊपर होगा ? अगर उन्हें अपनी कार्य-प्रवृत्ति में इस बात का भान हो जाए तो वे कभी भी उस में प्रवृत्त होने का साहस न करें। विष के अनिष्ट परिणाम का जिसे सम्यग ज्ञान है, वह कभी उसे भक्षण करने का साहस नहीं करता, यदि कोई करता भी है तो वह कोई मूर्ख शिरोमणि ही हो सकता है प्रस्तुत सूत्र में - सन्तिहोमं - शान्ति होमम् – इस पद का प्रयोग किया गया है । शान्ति के लिये किया गया होम शान्तिहोम कहलाता है । होम का अर्थ है - किसी देवता के निमित्त मंत्र पढ़ कर घी, जौ, तिल आदि को अग्नि में डालने का कार्य ।
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प्रस्तुत कथा - संदर्भ में लिखा है कि महेश्वरदत्त पुरोहित शान्ति - होम में ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांस - विंडों की आहुति डाला करता था, जो उस के उद्द ेश्य को सफल बनाने का कारण बनती थी। यहां यह प्रश्न होता है कि शान्तिहोम जैसे हिंसक और धर्म पूर्ण अनुष्ठान से कार्यसिद्धि कैसे हो जातो थी, अर्थात् हिंसापूर्ण होम का और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल को वृद्धि तथा युद्धगत विजय का परसर में क्या सम्बन्ध रहा हुआ है १ इस प्रश्न का उत्तर निम्नोक्त है
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शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि कार्य की सिद्धि में जहां अन्य अनेकों कारण उपस्थित होते हैं, वहां देवता भी कारण बन सकता है। देव दो तरह के होते हैं - एक मिथ्यादृष्टि और दूसरे सम्यग्दृष्टि । सम्यग्दृष्टि देव सत्य के विश्वासी और अहिंसा, सत्य आदि अनुष्ठानों में धर्म मानने वाले जब कि मिथ्यादृष्टि देव सत्य पर विश्वास न रखने वाले तथा अधर्मपूर्ण विचारों वाले होते है । मिध्यादृष्टि देवों में भी कुछ ऐसे वाणव्यन्तर आदि देव पाए जाते हैं जो अत्यधिक हिंसाप्रिय होते हैं और मां आदि की बलि से प्रसन्न रहते हैं । ऐसे देवों के उद्देश्य से जो पशुओं या मनुष्यों की बलि दो जाती है, उस से वे प्रसन्न होते हुए कभी कभी होम करने वाले व्यक्ति की अभीष्ट सिद्धि में कारण भी बन जाते हैं । फिर भले ही उन देवों की कारणता तथा तज्जन्य कार्यता भीषण दुगति को प्राप्त कराने का हेतु ही क्यों न बनती हो । महेश्वरदत्त पुरोहित भी इसी प्रकार के हिंसाप्रिय एवं मांसप्रिय देवताओं का जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि के लिये आराधन किया करता था और उन की प्रसन्नता के लिये ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चारों वर्ण के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांसपिंडों की बलि दिया करता था । यह ठीक है कि उस होम द्वारा देवप्रभाव से वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लेता था, परन्तु उसकी यह सावद्यप्रवृत्तिजन्य भौतिक सफलता उस के जीवन के पतन का कारण बनी और उसी के फल - स्वरूप उसे पांचवीं नरक में १७ सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल के भीषणातिभीषण नारकीय यातनायें भोगने के लिये जाना पड़ा ।
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मर्त्यलोक में भी शासन के आसन पर विराजमान रहने वाले मानव के रूप में ऐसे अनेकानेक दानव अवस्थित हैं, जो मांस और शराब को बलि ( रिश्वत ) से प्रसन्न होते हैं, और हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों में अधिकाधिक प्रसन्न रहते हैं। ऐसे दानव भी प्रायः मांस आदि की बलि लेने पर ही किसी के स्वार्थ को साधते हैं । जब मनुष्य संसार में ऐसी घृणित एवं गर्हित स्थिति उपलब्ध होती है तो दैविक संसार में अन्यायपूर्ण विचारों के धनी देव-दानवों में इस प्रकार की जघन्य स्थिति का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है ।
प्रस्तुत सूत्र में इस कथासंदर्भ के संकलन करने का यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि
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