________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
पश्चम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
की एक देवी थी।
उस शतानीक का सोमदत्त नाम का एक पुरोहित था जोकि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था । उस सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नाम की भार्या थी। तथा सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज वृहस्पति दत्त नाम का एक सर्वांगसम्पन्न और रूपवान् बालक था ।
टीका-विपाकश्रत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर अब पांचवें अध्ययन का आरम्भ किया जाता है । इस का उत्क्षेप अर्थात् प्रस्तावना का अनुसंधान इस प्रकार है
श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरुदेव श्री सधर्मा स्वामी की पुनीत सेवा में उपस्थित हो कर कहा कि भगवन् ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने निस्संदेह संसार पर महान् उपकार किया है । उन की समभावभावितात्मा ने व्यवहारगत ऊंच नीच के भेदभाव को मिटा कर सर्वत्र आत्मगत समानता की ओर दृष्टिपात करने का जो आचरणीय एवं आदणीय आदर्श संसार के सामने उपस्थित किया है वह उन की मानवसंसार को अपूर्व देन है । प्रतिकूल भावना रखने वाले जनमान्य व्यक्तियों को अपने विशिष्ट ज्ञान और तपोबल से अनुकूल बना कर उनके द्वारा धार्मिक प्रदेश में जो समुचित प्रगति उत्पन्न की है वह उन्हीं को आभारी है, एवं परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक विचारों को समन्वित करने के लिए जिस सर्वनयगामिनी प्रामाणिक दृष्टि-अनेकान्त दृष्टि का अनुसरण करने को विज्ञ जनता से अनुरोध करते हुए उस की भ्रान्त धारणाओं में समुचित शोधन कराने का सर्वतोभावी श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है।
भगवन् ! श्राप को तो उनके पुनीत दर्शन तथा मधर वचनामृत के पान करने का सौभाग्य चिरकाल तक प्राप्त होता रहा है । इसके अतिरिक्त उन की पुण्य सेवा में रह कर उनके परम पावन चरणों को धूलि से मस्तक को स्पर्शित करके उसे यथार्थरूप में उत्तमांग बनाने का सद्भाग्य भी आप को प्राप्त है । इस लिये श्रार कृपा करें और बतलायें कि उन्होंने विपाकश्रत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? क्योंकि उसके चतुर्थ अध्ययनगत अर्थ को तो मैंने श्राप श्री से श्रवण कर लिया है। अब मुझे श्राप से पांचवें अध्ययन के अर्थ को सुनने की इच्छा हो रही है ।
श्री जम्बू स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिये श्री सुधर्मा स्वामी से जो विनम्र निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने उक्खेवो-उत्क्षेप-पद से अभिव्यक्त किया है । उत्शेप पद का अर्थ है-प्रस्तावना । प्रस्तावना रूप सूत्रपाठ निम्नोक्त है
जति णं भन्ते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तणं दुहविवागाणं च उत्थस्स अझ यणस्त अयम? परणस, पचमस्स णं भन्ते ! अज्झयणस्त के अटे पएणत" इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है ।
जम्बू स्वामी की सानुरोध प्रार्थना पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री वीरभाषित पंचम अध्ययन का अर्थ सुनाना प्रारम्भ किया. जिस का वर्णन ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता ।
-रिद्ध० - यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ तथा –महया० - यहां के बिन्दु से अभिमत
For Private And Personal