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तीसरा अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
अनुभव करेगा।
पाठकों को स्मरण होगा कि श्री विपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की जीवनी का उल्लेख किया गया है । सूत्रकार उसी बात का स्मरण कराते हुए लिखते हैं
-एवं संसारो जहा पढमे-' अर्थात् जैसा कि प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण कथन कर आये हैं, ठीक उसी तरह पृथिवीकायोत्पत्तिपर्यन्त प्रस्तुत अध्ययन में भी अभमसेन चोरसेनापति के जीव का संसारभ्रमण जान लेना चाहिये । दूसरे शब्दों में कहे तो-जैसे मृगापुत्र संसार में गमनागमन करेगा उसी प्रकार अभग्नसेन का जीव भी चतुर्गतिरूप संसार में जन्म मरण करेगायह कहा जा सकता है। दोनों में जो विशेष अन्तर है, उसका निर्णय सूत्रकार ने स्वयं कर दिया है । मृगापुत्र का जीव तो नरक से निकल कर प्रतिष्ठानपुर नगर में गोरूप से उत्पन्न होगा जब कि अभग्नसेन का जीव बनारस नगरी में शूकर रूप से जन्म लेगा ।
भगवान् कहते हैं कि गौतम ! शूकर रूप में जन्मा हुअा अभग्नसेन का जीव शिकारियों के द्वारा मारा जाकर फिर बनारस नगरी में ही एक प्रतिष्ठित कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेकर वह अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करेगा । युवावस्था को प्राप्त होने पर एक संयमशील मुनि के सहवास से मानवजीवन के महत्त्व को समझेगा । तथा आध्यात्मिक विचारधाराओं के बढते २ अंततोगत्वा वह साधुवृत्ति को अंगीकार करेगा और उसके यथाविधि पालन से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा । देवोचित सुखों का उपभोग कर के वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा । वहां युवावस्था को प्राप्त हो कर अनागार -वृत्ति को अंगीकार करेगा । उसके सम्यक् अनुष्ठान से कर्मरूप इन्धन को तपरूप अग्नि से जलाकर आत्मगत कर्ममल को भस्मसात् करता हुआ परम कल्याणरूप निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेगा । तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकार के कर्मों का अन्त करके जन्म मरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा, आत्मा से परमात्मपद को ग्रहण कर लेगा ।
-उक्कोसे० - यहां का बिन्दु - उक्कोससागरोवमट्टिइएसु-इस समस्त पद का परिचायक है। इस पद का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है।
"-जहा पढमे जाव पुढवीए० – यहां पठित जाव--यावत् पद से -सरीसवेसु उववजिहिइ तत्थ णं कालं किच्चा -से ले कर-तेउ• आउ० -यहां तक के पदों का ग्रहण समझना । इन पदों का शब्दार्थ पृष्ट ९३ पर दिया जा चुका है । तथा-पुढवीए०-यहां के बिन्दु से -अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववजिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् लाखों बार पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा।
--पढमे जाव अंतं- यहां के-जाव-यावत् पद से-विराणायपरिणयमित्त जोव्वण - करोड़ को दस करोड़ से गुणा करने पर जो अंक हो वह) पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। सारांश यह है कि अंकों द्वारा न बताई जाने वालो बड़ी भारी आयु को सूचित करने के लिये सागरोपम शब्द का आश्रयण किया जाता है।
(१) नरक में किस तरह की कल्पनातीत यातनायें भोगनी पड़ती हैं ? इस विषय का शास्त्रीय अनुभव प्राप्त करने के इच्छुकों को श्री उत्तराध्ययन सूत्र के १९ वें अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की जीवनी का साद्योपान्त अवलोकन करना चाहिये । क्योंकि मृगापुत्र ने अपने माता पिता को स्वयं भोगी गई नरक-सम्बन्धी वेदनाओं का अपने जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा बोध कराया था । जोकि नरकसम्बन्धी सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये पर्याप्त है।
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