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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[ ३०१
पाणी परिभुजेमाणीश्रो परिभाषमाणीश्रो दोहलं विर्णेति । तं जइ णं श्रहमवि बहूणं जाव विणिज्जामि, त्ति क तंसि दोहलंसि प्रविणिज्जमा ंसि सुक्का भुक्खा जाव झियाइ | तणं ते सुभद्दे सत्थवाहे भहं भारियं श्रोहय० जाव पासति २ एवं वयासी किं गं तुमं देवाप्पिया ! हय जाव झियासि १, तर णं सा भद्दा सत्यवाही सुभद्दे सत्यवाहं एवं वयासी - एवं खलु देवागुपिया ! मम तिराहं मासागं जाव कियामि । तए गं से सुभहे सत्यवा भद्दा भारिया एयमहं सोच्चा निसम्म भदं भारियं एवं वयासी एवं खलु देवारंणुप्पिया ! तुह गर्भसि हा पुत्रकयपावप्यभावे के ग्रहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे जीवे यरिए तेणं एयारिसे दोहले पाउब्भूप, तं होउ णं पयस्स पसायणं, ति कट्टु से सुभद्दे सत्थवाहे के वि उवारणं तं दोहलं विणेइ । तर गं सा भद्दा सत्यवाही संपुराणदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला सम्पन्न दोहता तं गम सुहंसुहेणं परिवहइ । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है
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तदनन्तर उस भद्रा सार्थवाही के गर्भ को जब तीन मास पूर्ण हो गये, तब उसको एक दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं उन्हों ने ही पूर्वभव में पुण्योपार्ज' - न किया है, वे कृतलक्षण हैं अर्थात् उन्हों के ही शारीरिक लक्षण फलयुक्त हैं, और उन्होंने ही अपने वैभव को सफल किया है, एवं उन का ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जिन्होंने बहुत से अनेक प्रकार के नगर गोरूपों अर्थात् नगर के गाय आदि पशुओं के तथा जलचर स्थलचर और खेचर आदि प्राणियों के बहुत मांसों, जो कि तैलादि से तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाये गये हों, के साथ सुरा', मधु, मेरक जाति, सीधु और प्रसन्ना इन पांच प्रकार की मदिरात्रों का आस्वादन, विस्वादन बार २ आस्वादन), परिभोग करती हुई और दूसरी स्त्रियों कोटती हुई अपने दोहद ( दोहला ) को पूर्ण करती हैं । यदि मैं भी बहुत से नगर के गाय आदि पशुओं के और जलचर आदि प्राणियों के बहुत से और नाना प्रकार के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं को एक बार और आर २ श्रास्वादन करू. परिभोग करू और दूसरी स्त्रियों को भी बांटू. इस प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करू, तो बहुत अच्छा हो, ऐसा विचार किया परन्तु उस दोहद के पूरा न होने से वह भद्रा सूखने लगी, चिन्ता के कारण अरुचि होने से भूखी रहने लगी, उस का शरीर रोगग्रस्त जैसा मालूम होने लगा और मुंह पीला पड़ गया तथा निस्तेज हो गया, एव रात दिन नीचे मुंह किये हुए आतंध्यात करने लगी । एक दिन सुभद्र सार्थवाह ने भद्रा को पूर्वोक्त प्रकार से श्रार्तध्यान करते हुए देखा, देख कर उसने उससे कहा कि भद्रे ! तुम ऐसे श्रार्तध्यान क्यों कर रही हो १ सुभद्र सेट के ऐसा पूछने पर भद्रा बोली स्वामिन्! मुझे तीन मास का गर्भ होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ है कि मैं नगर के गाय आदि पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के तले, भूने और शूलपक मांसों के साथ पंचविध सरा आदि मदिराओं का आस्वादन. विस्वादन और परिभोग करू और उन्हें दूसरी स्त्रियों को भी दूं । मेरे इस दोहद के पूर्ण न होने के कारण मैं आर्तध्यान कर रही हूँ। भद्रा की इस बात को सुन कर तथा सोच विचार कर सुभद्र सार्थवाह भद्रा से बोले -
भद्रे ! तुम्हारे इस गर्भ में अपने पूर्वसंचित पापकर्म के कारण से ही यह कोई अधम यावत् (१) इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर दिया जा चुका है।
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