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३०४
श्री विपाक सूत्र
[चतुर्थ अध्याय
न्तर । महचंदे-महाचन्द्र । राया-राजा । सुसेणं-सुषेण । अमचं -अमात्य को । एवंइस प्रकार । वयासी-कहने लगा । देवाणु ! -हे महानुभाव !। तुमं चेव णं-तुम ही । सगड़स्स- शकटकुमार । दारगस्स-बालक को । दंडं - दण्ड । वत्त हि - दे डालो । तए णं-तत्पश्चात् । महचंदेण- महाचन्द्र । रराणा-राजा से । अब्भणुराणाते-अभ्यनुज्ञात अर्थात् अाज्ञा को को प्राप्त । समाणे -हुआ । से - वह । सुसेणे-सुषेण । अमच्चे-मंत्री । सगड़े दारयंशकट कुमार बालक । च-और । सदरिसणं-सुदर्शना। गणियं-गणिका को । एएण-इस (पूर्वोक्त)। विहाणेण-विधान -- प्रकार से । वझ-ये दोनों मारे जाए, ऐसी । आणवेति-आज्ञा देता है । गोतमा ! - हे गौतम ! । तं -इस लिये । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । सगड़े-शकट - कुमार । दारए-बालक । पुरा-पूर्वकृत । पोराणाणं - पुरातन, तथा । दुच्चिराणाणं- दुश्चीर्णदुष्टता से किये गये । जाव-यावत् कर्मों का अनुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है।
मूलार्थ-सुदर्शना के घर से मन्त्री के द्वारा निकाले जाने पर वह शकट कुमार अन्यत्र कहीं पर स्मृति, रति, और धृति को प्राप्त न करता हुआ किसी अन्य समय अवसर पाकर गुप्तरूप से सुदर्शना के घर में पहुंच गया और वहां उसके साथ यथारुचि कामभोगों को उपभोग करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा ।।
इधर एक दिन स्नान कर और सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो कर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित हुआ सुषेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया, आकर सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए उसने शकट कुमार को देखा और देख कर · वह क्रोध के मारे लालपीला हो, दांत पीसता हुआ, मस्तक पर तीन वल वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा लेता है और शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वा कर उस को याष्ट से यावत् मथित कर उसे अवकोटकबन्धन से जकड़वा देता है । तदनन्तर उसे महाराज महाचन्द्र के पाम ले जा कर महाचन्द्र नरेश से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार कहता है
स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है। इसके उत्तर में महाराज महाचन्द्र सुषेण मन्त्री से इस प्रकार बोले - हे महानुभाव ! तुम ही इस के लिए दण्ड दे डालो अर्थात् तुम्हें अधिकार है जो भी उचित समझो, इसे दण्ड दे सकते हो । तत्पश्चात् महाराज महाचन्द्र से आज्ञा प्राप्त कर सुषेण मन्त्री ने शकट कुमार
और सुदर्शना वेश्या को इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाये, ऐसी आज्ञा राजपुरुषों को प्रदान की।
इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! शकट कुमार बालक अपने पूर्वोपार्जित पुरातन तथा दुश्चीर्ण पापकर्मों के फल का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ।
टीका - मनुष्य जो कुछ करता है अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये करता है. उस के लिये वह दिन रात एक कर देता है । महान् परिश्रम करने के अनन्तर भी यदि उस का अभीष्ट सिद्ध हो जाता है तो वह फूला नहीं समाता और अपने को सब से अधिक भाग्यशाली समझता है। परन्तु उस अल्यज्ञ प्राणी को इतना भान कहां से हो कि जिसे वह अभीष्ट सिद्धि समझ कर प्रसन्नता से फूल रहा है, वह उस के लिये कितनी हानिकारक तथा अहितकर सिद्ध होगी?
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