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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
भेंट से वंचित रहते, वही सुदर्शना एक गरीब निर्धन को अपने पास बुलाने और उस से प्रेमालाप करती हुई आत्मसमर्पण करने को सन्नद्ध हो रही है । इस में इतना अन्तर अवश्य है कि यह प्रेम देहाध्यासयुक्त और अप्रशस्त राग से पूर्ण होने के कारण सुगतिप्रद नहीं है । अस्तु, दासी के द्वारा आमंत्रित शकट कुमार ऊपर गया और दोनों की चार आंखें होते ही एक दूसरे में समागये । इसी भाव को सूत्रकार ने-संपलग्गे-शब्द से बोधित किया है।
कहते हैं कि मानव के दुर्दिनों के बाद कभी सुदिन भी जाते हैं। सुदर्शना के प्रेमा. तिथ्य ने शकटकुमार के जीवन की काया पलट दी, वह अब उस मानवी वैभव का यथारुची उपभोग कर रहा है, जिस का उसे प्राप्त होना स्वप्न में भी सुलभ नहीं था । परन्तु उस का यह सुख - मूलक उपभोग भी चिरस्थायी न निकला । राज्यसत्ता के अधिकार ने उसे छिन्न भिन्न कर दिया।
शासन और सम्पत्ति में बहुत अन्तर है । दूसरे शब्दों में - शासक और धनाढ्य दोनों भिन्न २ पदार्थ हैं । धनाढ्य व्यक्त कितना ही गौरवशाली क्यों न हो परन्तु शासक के सामने आते ही उसका सब गौरव राहुग्रस्त चन्द्रमा की तरह ग्रस्त हो जाता है। शासन में बल है, अोज है और निरंकुशता है । इधर धन में प्रलोभन के अतिरिक्त और कुछ नहीं । राजकीय वर्ग का एक छोटा सा व्यक्ति, जिस के हाथ में सत्ता है, वह एक बड़े से बड़े धनी मानी गृहस्थ को भी कुछ समय के लिये नीचा दिखा सकता है । तात्पर्य यह है कि सत्ता के बल से मनुष्य कुछ समय के लिये जो चाहे सो कर सकता है ।।
सुदर्शना के रूप लावण्य की धाक सारे प्रांत में प्रसृत हो रही थी। वह एक सप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी । धनिकों को भी विवाह शादी के अवसर पर पर्याप्त द्रव्य व्यय कर के उस के संगीत
और नृत्य के अतिरिक्त केवल दर्शन मात्र का ही अवसर प्राप्त होता था । इस का कारण यही था कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं थी ।
पाठकों ने सषेण मंत्री का नाम सुन रक्खा है और सूत्रकार के कथनानुसार वह चतुविध नीति के प्रयोगों में सिद्धहस्त था, अर्थात् साम, दान, भेद और दण्ड इन चतुर्विध नीतियों का कब और कैसे प्रयोग करना चाहिये ? इस विषय में वह विशेष निपुण था । इसी लिये महाराज महाचन्द्र ने उसे प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया हुआ था, और नरेश का उस पर पूर्णविश्वास था । परन्तु प्रधान मंत्री सुषेण में जहां और बहुत से सद्गुण थे वहां एक दुर्गण भी था। वह संयमी नहीं था । ऐसे संभावित व्यक्ति का स्वदार-सन्तोषी न होना निस्सन्देह शोच. नीय एवं अवांछनीय है । उस की दृष्टि हर समय सुदर्शना वेश्या पर रहती, उस का मन हर समय उस की ओर आकर्षित रहता, परन्तु वह उसे प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं हो पाया। वह जानता था कि सुदर्शना केवल धन से खरीदी जाने वाली वेश्या नहीं है । उस से कई गुणा अधिक धन देने वाले वहां से विफल हो कर आ चुके हैं । इस लिये नीतिकुशल सुषेण ने शासन के बल से उस पर अधिकार प्राप्त किया और उसके प्रेमभाजन शकट कुमार को वहां से निकाल दिया
और स्वयं उसे अपने घर में रख लिया । परन्तु इतना स्मरण रहे कि सुषेण मंत्री ने अपनी सत्ता के बल से सदर्शना के शरीर पर अधिकार प्राप्त किया है न कि उस के हृदय पर । उस के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार तो शकट कुमार का है, जिसे उसने वहां से निकाल दिया है ।
"-जायणिंदुया-" के स्थान पर "-जाइजिंदुया-" ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है ।
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