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२००] श्री वपाक सूत्र
[चतुर्थ अध्याय छरिणक । छागलिए - छागलिक । तेहिं-उन । बहू हिं-अनेकविध । अयमंसेहि य-बकरों के मांसों । जाव - यावत् । महिसमंसेहि य-महिषों के मांसों, जो कि । सोल्लेहि-शूल के द्वारा पकाये हुए। तलिएहिं-तले हुए, और । भज्जिएहिं- भूने हुए हैं, के साथ । सुरं व ५--पंचविध सुरात्रों-मद्यविशेषों का। श्रासादेमाणे ४- आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ । विहरति-जीवन बिता रहा था। तते णं-तदनन्तर । से--वह । छरिणए - छरिणक। छागलिए - छागलिक । एयकम्मे - इस प्रकार के कर्म का करने वाला । एयप्पहाणे-- इस कर्म में प्रधान । एयविज्जे-इस प्रकार के कर्म के विज्ञान वाला तथा । एयसमायारे-इस कर्म को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला । कलिकनुसं--क्लेशजनक
और मलिन- रूप । सुबहु-अत्यधिक । पावं - पाप । कम्म-कर्म का । समज्जिणित्ता-उपार्जन कर । सत्तवाससयाई-सात सौ वर्ष की । परमाउं-परम आयु । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर । कालमासे-कालमास अर्थात् मरणावसर में । कालं-काल । किच्चा-कर के। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट । दससागरोवमठितिपसु-दश सागरोपम स्थिति वाले । णेरइएसु-नारकियों में । णेरइयत्ताएनारकी रूप से । चउत्थीए-चौथी । पढवीए - पृथिवी-नरक में । उववन्ने - उत्पन्न हुआ ।
मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तगत भारतवर्ष में छगलपुर नाम का एक नगर था । वहां सिंहगिरि नामक राजा राज्य किया करता था, जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था । उस नगर में छरिणक नामक एक छागलिक-छागादि के मांस का व्यापार करने वाला वधिक रहता था, जो कि धनाढ्य, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था।
उस छणिक छागलिक के अनेक अजों, बकरों, भेडों, गवयों, वृषभों, शशकों. मृगविशेषों या. मृगशिशुओं, शूकरों, सिंहों, हरिणों, मयूरों और महिषों के शतबद्ध एव सहस्त्रबद्ध अर्थात् सौ २ तथा हज़ार २ जिन में बन्धे रहते थे ऐसे यूथ वाटक-बाड़े में सम्यक् प्रकार में रोके हुए रहते थे । वहां उसके जिनको वेतन के रूप में रुपया पैसा और भोजन दिया जाता था, ऐसे पुरुष अनेक अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण तथा संगोपन करते हुए उन-अजादि पशुओं को घरों में रोके रखते थे।
छणिक छागलिक के रुपया और भोजन लेकर काम करने वाले अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजारों अजों यावत् महिषों को मार कर उन के मांसों को कर्तनी से काट कर परिणक को दिया करते थे, तथा उस के अनेक नौकर पुरुष उन -मांसों को तवों, कल्लियों भर्जनकों और श्रगारों पर तलते, भूनते और मूल द्वारा पकाते हुए उन--मांसों को राजमार्ग में वेच कर भाजीविका चलाते थे ।
, छणिक छागलिक स्वयं भी तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाये हुए उन मांसों के साथ सुरा आदि पंचविध मद्यों का आस्वादनादि करता हुआ जीवन बिता रहा था । उसने अजादि पशुयों के मांसों को खाना तथा मदिराओं का पोना अपना कर्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था, यही प्रवृत्तिएं उस के जीवन का विज्ञान बनी हुई थी और ऐसे ही पाप-पूर्ण कामों को उस ने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था, तब क्लेशजनक और मलिनरूप अत्यधिक पाप कर्म का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की पूर्णायु पाल कर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारकीय रूप से उत्पन्न हुआ ।
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