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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
(२९५
पिता ने उस का शकट कुमार यह नाम रक्खा । उस का शेष जीवन उज्झितक कुमार के जीवन के समान जान लेना चाहिये।
जव सुभद्र सार्थवाह लवण समुद्र में काल धर्म को प्राप्त हुआ एवं शकट की मा. ता भद्रा भो मृत्यु को प्राप्त हो गई, तब उस शफट कुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से निकाल दिया गया । अपने घर से निकाले जाने पर शकट कुमार साहजनो नगरी के शृंगाटक (त्रिकोण मार्ग) आदि स्थानों में घूमता, तथा जुआरियों के अड्डों और शराबवानों में रहता । किसी समय उसकी सुदर्शना गाणका के साथ गाढ प्रीति हो गई और वह उसी के वहां रह कर यथारूचि कामभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा ।
तदनन्तर महाराज सिंहगिरि का अमात्य -मंत्री सुषेण किसी अन्य समय उस शकट कुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से निकलवा देता है और सुदर्शना को अपने घर में रख लेता है । घर में स्त्रीरूप से रकावी हुई उस सुदर्शना के माथ मनुष्यसम्बन्धी उदार-विशिष्ट कामभोगों का यथारुचि उपभोग करता हश्रा समय व्यतीत करता है।
टीका - प्रस्तुत अध्ययन के प्रारंभ में सूत्रकार ने साहजनी नगरी का परिचय कराया था, साथ में वहां यह भी उल्लेख किया गया था कि उस में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह- मुसाफिर व्यापारियों का मुखिया, रहता था । उस की धर्मपत्नी का नाम भद्रा था जोकि जातनिंदुका थी अर्थात् उसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे । इसलिये संतान के विषय में वह बहुत चिन्तातुर रहती थी। पति के आश्वासन और पर्याप्त धनसम्पत्ति का उसे जितना सुख था, उतना ही उस का मन सन्तति के अभाव से दु:खी रहता था।
मनोविज्ञान शास्त्र का यह नियम है कि जिस पदार्थ की इच्छा हो उस की अप्राप्ति में मानसिक व्यग्रता अशांति बराबर बनी रहती हैं। यदि इच्छित वस्तु प्रयत्न करने पर भी न मिले तो मन को यथाकथंचित् समझा बुझा कर शान्त करने का उद्योग किया जाता है, अर्थात् प्रयत्न तो बहुत किया, उद्योग करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, उस पर भी यदि कार्य नहीं बन पाया, अर्थात् मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई तो इस में अपना क्या दोष ? यह विचार कर मन को ढाढस बंधाया जाता है । यले कृते यदि न सिध्यति, कोऽत्र दोषः । परन्तु जिस वस्तु की अभिलाषा है, वह यदि प्राप्त हो कर फिर चली जाए - हाथ से निकल जाए तो पहली दशा की अपेक्षा इस दशा में मन को बहुत चोट लगती है । उस समय मानस में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, वह अधिक कष्ट पहुँचाने का कारण बनता है।
सुभद्र सार्थवाह की स्त्री भद्रा उन भाग्यहीन महिलाओं में से एक थी जिन्हें पहले इष्ट वस्तु की प्राप्ति तो हो जाती हो, परन्तु पीछे वह उन के पास रहने न पाती हो । तात्पर्य यह है कि भद्रा जिस शिशु को जन्म देती थी, वह तत्काल ही मृत्यु का ग्रास बन जाता था, उसे प्राप्त हुई अभिलषित वस्तु उसके हाथ से निकल जाती थी, जो महान् दुःख का कारण बनती थी।
स्त्रीजात को सन्तति पर कितना मोह और कितना प्यार होता है । यह स्त्रीजाति के हृदय से पूछा जा सकता है । वे अपनी सन्तान के लिये शरीरिक और मानसिक एवं श्रार्थिक तथा अपने अन्य स्वार्थी का कितना बलिदान करती है ? यह भी जिन्हें मातृहृदय की परख है, उन से छिपा हुआ नहीं है, अर्थात् सन्तान की प्राप्ति की स्त्रीजाते के हृदय में इतनी लग्न और लाल.
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