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२८२] श्री विपाक सूत्र
[ चतुर्थ अध्याय पाठकों को स्मरण रहे कि श्री जम्बू स्वामी ने अपनी भाषा में जो कुछ श्री सुधर्म स्वामी से प्रार्थनारूप में निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने “ उक्खेवो-उतक्षेपः" शब्द से सूचित किया है । उत्क्षेप को दूसरे शब्दो में प्रस्तावना कहा गया है। सम्पूर्ण प्रस्तावनासम्बन्धी पाठ इस प्रकार से है- जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत्त, चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पराणत्तो-अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दु:खविपाक के तृतीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! उन्हों ने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है १ .
जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न का उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने जो उत्तर देना प्रारम्भ किया उसे ही सूत्रकार ने “ एवं खलु जम्ब! तेणं कालेणं तेणं समएणं......” इत्यादि पदों में वर्णित किया है, जिन का अर्थ नीचे दिया जाता है -
श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसपिणी काल का चौथा बारा व्यतीत हो रहा था, उस समय साहंजनी नाम की एक सुप्रसिद्ध वैभवपूण नगरी थी । उस के बाहिर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक परम सुन्दर उद्यान था । उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षातन-स्थान था, जो कि पुराने जमाने के सुयोग्य अनुभवी तथा निपुण शिल्पियों - कारीगरों के यशःपुज को दिगंतव्यापो करने में सिद्धहस्त था । दूसरे शब्दों में कहें तोअमोघ यक्ष का स्थान बहुत प्राचीन तथा नितान्त सुन्दर बना हुआ था --यह कहा जा सकता है।
साहजनी नगरी में महाराज महाचन्द्र का शासन चल रहा था। महाराज महाचन्द्र हृदय के बड़े पवित्र और प्रजा के हितकारी थे । उन का अधिक समय प्रजा के हित-चिन्तन में ही व्यतीत होता था । प्रजाहित के लिये अपने शारीरिक सुखों को वे गौण समझते थे । शास्त्रकारों ने उन्हें हिमा. चल और मेरु पर्वत आदि पर्वतों से उपमित किया है, अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पर्वत निप्रकप तथा महान् होते हैं, ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी धैर्यशील और महा प्रतापी थे, तथा जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्र षोडश कलाओं से सम्पूर्ण और दर्शकों के लिये श्रानन्द उपजाने वाला होता है, उसी प्रकार महाचन्द्र भी नृपतिजनोचित समस्त गुणों से पूर्ण और प्रजा के मन को आनन्दित करने वाले थे। ...
महाचन्द्र के एक सुयोग्य अनुभवी मंत्री था जो कि सुषेण के नाम से विख्यात था । वह साम, भेद, दण्ड और दाननीति के विषय में पूरा २ निष्णात था, और इन के प्रयोग से वह विपक्षियों का निग्रह करने में भी पूरी २ निपुणता प्राप्त किये हुए था । इसी लिये वह राज्य का संचालन बड़ी योग्यता से कर रहा था और महाराज महाचन्द्र का विशेष कृपापात्र बना हुआ था।
प्रियवचनों के द्वारा विपक्षी को वश में करना साम कहा जाता है। स्वामी और सेवक के हृदय में विभन्नता उत्पन्न करने का नाम भेद है। किसी अपराध के प्रतिकार में अपराधी को पहुंचाई गई पीड़ा या हानि दण्ड कहलाता है। अभिमत पदार्थ के दान को दान या उपप्रदान कहते हैं । निग्रह शब्द - दण्डित करना या स्वाधीन करना - इस अर्थ का परिचायक है, यह छल, कपट एवं दमन से साध्य होता है।
साम, भेद आदि पदों के भेदोपभेदों का वर्णन आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने श्री
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