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चतुर्थ अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
२८१
चाहिये । तत्थ णं-उस । साहंजणीए.-साहजनी। एयरीए-नगरी में। सुभद्दे-सुभद्र । णाम-नाम का। सत्यवाहे-सार्थवाह । होत्था-था, जो कि । अड्ढे०- धनी एवं बड़ा प्रतिष्ठि त था । तस्स णंउस । सुभहस्स-सुभद्र । सत्यवाहस्स - सार्थवाह की । भद्दा- भद्रा । नाम-नाम की। भारियाभार्या । होत्था-थी, जो कि । अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाली थी। तस्स णं-उस । सुभद्दस्स-सुभद्र । सत्थवाहस्स-सार्थवाह का । पुत्त-पुत्र और । भद्दाए-भद्रा। भारियाएभार्या का । अत्तएं- आत्मज । सगडे-शकट । नाम-नाम का। दारए-बालक । होत्था-था, जो कि । अहीण. -- अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय' शरीर से 'युक्त था । ।
मूलार्थ-जम्बू स्वामी के "- हे भदन्त ! यदि तीसरे अध्ययन का इस प्रकार से अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ?-" इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू ! उस काल और उस समय में साहजनी नाम की एक ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध नगरी थी। उसके बाहिर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन- स्थान था । उस नगरी में महाचन्द्र नाम का राजा राज्य किया करता था जोकि हिमालय आदि पर्वतों के समान अन्य राजाओं की अपेक्षा महान् तथा प्रतापी था। उस महाचन्द्र नरेश का सुषेण नाम का एक मंत्री था , जोकि सामनीति, भेदनीति और दण्डनीति के प्रयोग को और उसकी अथवा न्याय की विधियों को जानने वाला तथा निग्रह में बड़ा निपुण था ।
उस नगरी में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी। उस के वैभव कावर्णन द्वितीय अध्ययन में वर्णित कामध्वजा नामक वेश्या के समान जान लेना चाहिये, तथा उस नगर में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था, उस सुभद्र सार्थवाह, अर्थात् सार्थ-व्यापारी मुसाफिरों के समूह का मुखिया, की भद्रा नाम की एक अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर वाली भार्या थो, तथा सुभद्र सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज शकद नाम का एक बालक था, जोकि अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त था।
टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनगारपुगव श्री जम्बू स्वामी आचार्यप्रवर श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों की पर्युपासना करते हुए साधुजनोचित त्यागी और तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए, नित्यकर्म के अनन्तर उन से भगवत्-प्रणीत निम्रन्थ प्रवचन का भी प्रायः निरन्तर श्रवण करते रहते थे ।
पाठकों को स्मरण होगा कि श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को पहले प्रकरणों में उनके प्रश्नों का उत्तर दे चुके हैं । दूसरे शब्दों में-श्री जम्बू स्वामी ने विपाकश्रुत के तीसरे अध्ययन के श्रवण की इच्छा प्रकट की थी । तब श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें तीसरे अध्ययन में चोरसेनापति अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाया था, जिसे श्री जम्बू स्वामी ने ध्यानपूर्वक सुना और चिन्तन द्वारा उसके परमार्थ को अवगत किया था, अब उनके हृदय में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की उत्कंठा हुई । वे सोचने लगे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चतुर्थ अध्ययन में क्या प्रतिपादन किया होगा ? क्या उस में भी चौर्यकर्म के दुष्परिणाम की वर्णन होगा या अन्य किसी विषय का ? इत्यादि हृदयगत ऊहापोह करते हुए अन्त में उन्हों ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की प्रार्थना की ।
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