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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान और तीसरे उद्देशक में बड़ी सुन्दरता से किया है। पाठकों की जानकारी के लिये वह स्थल नीचे दिया जाता है
(१) 'साम-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-परस्पर के उपकारों का प्रदर्शन करना, २-दूसरे के गुणों का उत्र्कीतन करना, (३) दूसरे से अपना पारस्परिक सम्बन्ध बतलाना, (४) आयति (भविष्यत्-कालीन) अाशा दिलाना अर्थात् अमुक कार्य करने पर हम को अमुक लाभ होगा, इस प्रकार से भविष्य के लिये अाशा बंधाना, ५-मधुर वाणी से-मैं तुम्हारा ही हं - इस प्रकार अपने को दूसरे के लिये अर्पण करना। ...
(२) भेद-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-स्नेह अथवा राग को हटा देना अर्थात् किसी का किसी पर जो स्नेह अथवा राग है उसे न रहने देना । २-स्पर्धा-ईर्षी उत्पन्न कर देना। -मैं ही तुम्हें बचा सकता हं-इस प्रकार के वचनों द्वारा भेद डाल देना
(३) दण्ड- तीन प्रकार का होता है जैसे कि १--वध-प्राणान्त करना । २-परिकलेशपीड़ा पहुंचाना। ३-जुरमाना के रूप में धनापहरण करना।
(४) दान-पाच प्रकार का होता है, जैसे कि १-दूसरे के कुछ देने पर बदले में कुछ देना। ग्रहण किये हए का अनुमोदन-प्रशंसा करना । ३-अपनी ओर से स्वतन्त्ररूपेण किसी अपूर्व वस्तु को देना । ४-दूसरे के धन को स्वयं ग्रहण कर अच्छे २ कामों लगा देना । ५-ऋण को छोड़ देना ।
इसके अतिरिक्त उक्त नगरी में सुदर्शना नाम की एक गणिका-वेश्या भी रहती थी जो कि अपनी गायन और नृत्य कला में बड़ी प्रवीण तथा धनसम्पन्न कामिजनों को अपने जाल में फंसाने के लिये बड़ी कुशल थी । उस की रूज्वाला में बड़े २ धनी, मानी युवक शलभ-पतंग की भान्ति अपने जीवनसर्वस्व को अर्पण करने के लिये एक दूसरे से आगे रहते थे।
तथा साहजनी नगरी में सुभद्र नाम के एक सार्थवाह भी रहते थे, वे बड़े धनाढ्य थे । लक्ष्मीदेवी की उन पर असीम कृपा थी । इसी लिये वे नगर में तथा राजदरबार में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त किये हुए थे । उन की सहधर्मिणी का नाम भद्रा था। जोकि रूपलावण्य में अद्वितीय होने के अतिरिक्त पतिपरायणा भी थी। जहां ये दोनों सांसारिक वैभव से परिपूर्ण थे वहां इनके
(१) सामलक्षणमिदम् -परस्परोपकाराणां दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यानं ३ श्रायत्याः संप्रकारानम् ४ ॥१॥ वाचा पेरालया साधु तवाहमिति चार्पणम्। इति सामप्रयोगज्ञैः साम पंचविधं स्मृतम् ॥ २ ॥ अस्मिन्नेवं कृते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसम्प्रकाशनमिति । भेदलक्षणमिदम् - स्नेहसमापनयनं १ संहर्षोत्पादनं तथा २ । सन्तर्जनं ३ च भेदज्ञः भेदस्तु विविधः स्मृतः ॥ ३ ॥ संहर्षः स्पर्धा, सन्तजनं च अस्यास्मिन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्सो भविष्यतोत्यादिकरूपमिति । भेदलक्षण मिदम्-वधश्चैव १ परिक्लेशो २, धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधानझंदण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥ ४ ॥ प्रदानलक्षणमिदम्-१ यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः उत्तमाधममभ्यमाः। प्रतिदानं तथा तस्य २ गृहीतस्यानुमोदनम् ॥ १॥ द्रव्यदानमपूर्व च ३ स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ४ । देयस्य प्रतिमोक्षश्च ५ दानं पंचविधं स्मृतम् ॥२॥ धनोत्सर्गो-धनसम्पत्, स्वयंग्राहप्रवर्तनं-परस्वेषु, देयप्रतिमोक्षः ऋणमोक्ष इति । (स्थानांगवृत्तितः)।
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