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श्री विपाक सूत्र
[ तोसरा अध्यय
है, उसे सेवार्तक संहनन कहते हैं । यह सब से कमजोर संहनन होता है ।
इस संहनन .. वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरगत सबलता एवं निर्बलता संहनन के कारण ही होती है । संहनन यदि सबल होता है तो शरीर भी उसके अनुरूप सबल होता है इसके विपरीत यदि संहनन निर्बल है तो शरीर भी निर्बल होगा । अतः अभमसेन इतना भीपण संकट सह लेने पर भी जो जीवित रहा. अर्थात् उस का प्राणान्त नहीं होने पाया तो इस में केवल संहननगत बलवत्ता को ही कारण समझना चाहिये । आज भी संहननगत भिन्नता के कारण व्यक्तियों में न्यूनाधिक बल पाया जाता है । अपनी छाती पर शिला रखवा कर उसे हथौड़ों से तुड़वाने वाले तथा अपने वक्षस्थल पर हाथी को चलवाने वाले एवं चलते इंजन को रोकने का साहस रखने वाले वीराग्रणी राममूर्ति को कौन नहीं जानता ? सारांश यह है संहननगत वलबत्ता के सन्मुख कुछ भी असम्भव नहीं है। रहस्यं तु केवलिगम्यम् ।
अभग्नसेन चोरसेनापति कुल १ सैन्तीस वर्ष की आयु भोग कर शूली के द्वारा काल - मृत्यु को प्राप्त कर पूर्वकृत दुष्कर्मों से रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, नरक में भी उन नारकियों में उत्पन्न होगा, जिन की उत्कृष्ट अायु एक २सागरोपम की है। एवं नानाविध नरकयातनाओं का
(१) प्रस्तुत कथासन्दर्भ में लिखा है कि अभमसेन के आगे उसने लधुपिताओं (चाचा), महापिताओं - तायों, पोतो, पोतियों, दोहतों तथा दोहतियों आदि पारिवारिक लोगों को ताडित किया गया । साथ में अभमसेन की आयु ३७ वर्ष की बतलाई है । यहां प्रश्न होता है कि इतनी छोटी आयु में दोहतियों आदि का होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। जो कि निम्नोक्त हैं -
१-अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति का परिवार अभग्नसेन के अपने पितृपद पर अोरूड़ हो जाने के कारण उसे उसी दृष्टि से अर्थात् पिता की दृष्टि से देखता था और अभग्नसेन भी उस पितृपरिवार का पिता की भान्ति पालन पोषण किया करता था । इसी दृष्टि से सूत्रकार ने विजय चोरसेनापति के परिवार को अभग्नसेन का परिवार बतलाया है।
२- अभमसेन चोरसेनापति के ज्येष्ठ भाई की सन्तति भी उसके पोता दोहता आदि सम्बन्धों से कही जा सकती है। अतः यहां जो अभमसेन के पोते, दोहते आदि पारिवारिक लोगों का उल्लेख किया गया है, उस में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं है।
(२) एक योजन (चार कोस) गहरा, एक योजन लम्बा, एक योजन विस्तार वाला कूप हो, उसमें युगलियों के केश-बाल अत्यन्त सूक्ष्म किये हुए अर्थात् जिनके खण्ड का और खण्ड न हो सके, भर दिये जाएं, तथा वे इतने ठोसकर भरे जावें कि जो एक वज्र की भान्ति घनरूप हो जावें, तथा जिन पर चक्रवर्ती की सेना (३२ हज़ार मुकुटधारी राजा, ८४ लाख हाथी, ८४ लाख घोड़े, ८४ लाख रथ तथा ६६ करोड़ पैदल सेना) भ्रमण करती हुई चली जाए तब भी एक केशखण्ड मुड़ने नहीं पावे । अथवा गंगा, यमुनादि नदियों का जल उस कूप पर से बहने लग जाए, तब भी एक बाल बहाया या आर्द्र न किया जा सके, एवं जिस कूप पर उल्कापात आदि की अग्नि की वर्षा ज़ोरों के साथ होवे तब भी उन केशों में से एक भी केश दग्ध न हो सके, ऐसे ठोंस कर भरे हुए उस कूप में से सौ २ वर्ष के बाद एक २ केशखण्ड निकाला जाये । इसो भान्ति निकालते २ जितने काल में वह कूप खाली हो जाए, उतने काल की एक पल्योपम संज्ञा होती है। ऐसे दस कोडाकोडी (दस
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