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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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तीसरा अध्याय ]
के शब्दों में इस प्रकार है.
" तवरसु य" - त्ति तवकानि - सुकुमारिकादितलनभाजनानि । “कवल्लीसु य" - त्ति कवल्योगुडादिपाकभाजनानि । “कंदूसु य" त्ति कन्दवो मंडकादिपचनभाजनानि " भज्जणरसु य" ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अंगाराश्च प्रतीताः, 'तलेति" अग्नौ स्नेहेन " भज्जेंति" भृज्जन्ति धान्यवत् पचन्ति ; "सोल्जिति य" श्रोदनमिव राध्यन्ति, खंडशो वा कुर्वन्ति । इस पाठ का भावार्थ निम्न है।
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सुकुमारिका - पूडा पकाने का लोहमय भाजन - पात्र तवा कहलाता है। गुड़, शर्करा आदि पकाने का पात्र कवल्ली कहा जाता है, हिन्दी भाषा में इसे कडाहा कहते हैं । कन्दु उस पात्र का नाम है जिस पर रोटी पकाई जाती है। भूनने का पात्र कड़ाही आदि भर्जनक कहा जाता है । दहकते हुए कोयले के लिये अंगार शब्द प्रयुक्त होता है । अर्द्धमागधी कोषकार कन्दु शब्द के लोहे का एक बर्तन, चने आदि भूनने दो अर्थ करते हैं । प्राकृतशब्द महार्णव के पृष्ठ २६७ पर ' कन्दु' का अर्थ " - जिस हुए चावलों में से निकाला हुआ लेसदार पानी) आदि पकाया जाता हो वह बर्तन लिखा है । टीकाकार महानुभाव के मत में " तबक" और "कन्दु" दोनों में प्रथम
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की कड़ाही - ऐसे
में माण्ड ( पकाए
हाण्डा - " ऐसा पूड़ा पकाने का
और दूसरा रोटी पकाने का पात्र है।
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" तलेंति” – इस क्रियापद से अग्नि पर तैल आदि से तलते हैं - कड़कड़ाते हुए घी या तेल में डाल कर पकाते हैं - ऐसा अर्थ अभिव्यक्त होता है । 'भज्जैति" का अर्थ है - धाना (भूने हुए यत्र - जो या चावल) की तरह भूनते थे - आग पर रख कर या गरम बालू पर डाल कर
I । “सोल्लिति" - पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि – १ – चावल के समान पकाते थे, तात्पर्य यह है कि जिस तरह चावल पकाये जाते हैं, उसी तरह निर्णय के नौकर अंडों को पकाया करते थे । २ - खण्ड २ किया करते थे ।
परन्तु कोषकार "सोल्लिंति" इस क्रियापद का अर्थ – शूल ( बड़ा लंबा और लोहे का नुकीला काटा) पर पकाते थे – ऐसा करते हैं ।
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अब सूत्रकार निर्णय अडवाणिज की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल - ' से ए तो अतरं उच्चट्टित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स, खंदसिरीए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तते गं तीसे खंदसिरीए
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(१) छाया - स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य इहैव शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयस्स चोरसेनापतेः स्कन्दश्रियो भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततस्तस्य स्कन्दश्रियो भार्यायाः अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्रूपः दोहदः प्रादुर्भूतः - धन्यास्ता अम्बाः ४ या बहुभिभिंत्र - ज्ञाति - निजक – स्वजन - संबन्धि - परिजन –महिलाभिः, अन्याभिश्वोर महिलाभिः सार्द्ध संपरिवृताः स्नाताः यावत् प्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिताः विपुलमशनं पानं खादिमं स्वादिमं सुरां च ५ श्रास्वादयमानाः ४ विहरन्ति । जिमितभुक्तोत्तरागता:, पुरुषनेपथ्याः सन्नद्ध० यावत् प्रहरणाः फलकैः निष्कृष्टैरसिभिः सागतस्तूर्णः सजीवैर्धनुर्भिः समुत्क्षिप्तैः शरैः समुल्लासिताभिर्दामभिः लम्बिताभिरवसरिताभिरुरूवं टाभिः क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट ० यावत् समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणाः शालाटव्यां चोरपल्ल्यां सर्वतः समन्तादवलोकयन्त्यः २ श्राहिण्डमानाः २ दोहदं विनयन्ति । तद् यद्यहमपि यावद् विनयामि इति कृत्वा तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने यावद् ध्यायति ।