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२५६]
श्री विपाक सूत्र
[तीसरा अध्याय
इस कारण से ।
___"-करयल० जाव एवं-" यहा पठित जाव-यावत् पद से और साथ में उल्लेख किये गये बिन्द से जो पाठ विवक्षित है, उस को पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है ।
"उरंउरेणं" यह देश्य -देशविशेष में बोला जाने वाला पद है । इस का अर्थ साक्षात् - सन्मुख होता है। उरउरेणं त्ति साक्षादित्यर्थः ।
शास्त्रों में नीति के, “सामनीति, दाननीति, भेदनीति और दण्डनीति" ये चार भेदप्रकार बतलाये गये हैं. इस में अन्तिम दण्डनीति है, जिस का कि अन्त में ही प्रयोग करना नीतिशास्त्र - सम्मत है, और तभी वह लाभप्रद हो सकता है । महाबल नरेश ने पहले की तीनों नीतियों की उपेक्षा कर के सब से प्रथम दण्डनो ते का अनुसरण किया जो कि नीतिशास्त्र की दृष्टि से
न नहीं था । अतः इसका जो परिणाम हा वह पाठका के समक्ष ही है। तब महाबल श ने अभग्नसेन के निग्रहार्थ दण्डनीति को त्याग कर पहली तीन साम, दान और भेद नीतियों के अनुसरण करने का जो आचरण किया वह नातिशास्त्र की दृष्टि से उचित ही कहा जायेगा । साम आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है
(१) प्रेमोत्पादक वचन साम कहलाता है । (२) राजा का सैनिकी में और सैनिकों का राजा में विश्वास उत्पन्न करा देने का नाम भेद है । (३) दान का ही दूसरा नाम उपप्रदान है, उस का अर्थ है-अभेतार्थ दान अर्थात् इच्छित पदार्थों का देना । इन तीनों से जहां कार्य की सिद्धि न हो सके वहां पर चौथी अर्थात् दण्डनीति (दण्ड दे कर अर्थात् पीडित करके शासन में रखने की राजाओं को नीति) का प्रयोग किया जाता है । ऐसा नीतिज्ञों का श्रानु. भविक आदेश है।
"जे वि य से अभितरगा सोसगभमा ,- इन पदों की व्याख्या प्राचार्य अभयदेव सरि ने इस प्रकार की है
येऽ पिच 'से' तस्याभग्नसनेस्याभ्यन्तरका आसन्ना मंत्रिप्रभृतय : किम्भूता : "सीसगभम त्ति' शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमो-भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यभ्रमा :, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थ : अथवा शीर्षकं शिर एव शिर : कवचं वा तस्य भ्रमोऽव्यभिचारितया शरीररक्षकत्वेन वा ते शीर्षकभ्रमाः-अर्थात् प्रस्तुत सूत्र में अभ्यन्तरक शब्द से - अभग्नसेन के मन्त्री आदि सहचर, यह अर्थ ग्रहण किया गया है, और "सीसगभमा" इस के "शिष्यकभ्रमाः" और "शीर्षकभ्रमाः” ऐसे दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं । इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रख कर उक्त पद के तीन अर्थ होते हैं । जैसे कि-(१) शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला दूसरा शब्द शिष्यक है जिस में शिष्यत्व की भ्रान्ति हो, उसे शिष्यकभ्रम कहते हैं अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्यतुल्य हैं, उन्हें शिष्यकभ्रम कहा जाता है (२) शरीररक्षक होने के नाते जिन को शरीर के तुल्य समझा जाता है वे शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं (३) शिर का रक्षक होने के कारण जिन पर कवच का भ्रम किया जा रहा है अर्थात् जो शिर के कवच की भान्ति शिर की रक्षा करते हैं, वे भी शीर्षकभ्रम कहलाते हैं ।
(१) साम-प्रेमोत्पादकं वचनम् । भेदः-स्वामिनः पदातिषु पदातीनां च स्वामिनि अविश्वासोत्पादनम् । उपप्रदानम्-अभिमतार्थदानमिति टीकाकारः
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