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श्रीविपाक सूत्र
[तोसरा अध्याय
व्यापार नहीं कर सकता। वह शुभ या अशुभ कर्म दो प्रकार का होता है। पहला -सोपक्रम
और दसरा निरुपक्रम । (१ किसी निमित्तविशेष से जिन कर्मों को क्षय किया जा सके वे कर्म सोपक्रम (सनिमित्तक) कहलाते हैं । (२) तथा जिन कर्मों का नाश बिना किसी निमित्त के अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही हो, अर्थात् जो किसी निमित्तविशेष से विनष्ट न हो सके, उन कर्मों को निरुपक्रम (निनिमित्तक) कहते हैं।
तब जो वैरादि उपद्रव सोपक्रमकर्मजन्य होते है वे तो तीर्थंकरों के अतिशयविशेष से उपशान्त हो जाते हैं और जो निरुपक्रमकर्मसम्पादित होते हैं वे परम असाध्य रोग की तरह तीर्थकर देवों की अतिशय -परिधि से बाहिर होते हैं । अब इसी विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझिये -
___ व्याधिये दो प्रकार की होती हैं । एक साध्य और दूसरी असाध्य । जो व्याधि वैद्य के समुचित औषधोपचार से शान्त हो जाये वह साध्य और जिस को शान्त करने के लिये अनुभवी वैद्यों की रामबाण औषधिये भी विफल हो जायें. वह असाध्य व्याधि है ।
तब प्रकृत में सोपक्रमकमजन्य विपाक तो साध्यव्याधि की तरह तीर्थकर महाराज के अतिशय से उपशान्त हो जाता है परन्तु जो विपाक - परिणाम निरुपक्रमकर्मजन्य होता है, वह असाध्य रोग की भान्ति तीर्थंकर देव के अतिशय से भी उपशान्त नहीं हो पाता । इसी भाव को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये यदि यू कह दिया जाए कि निकाचित कर्म से निष्पन्न होने वाला विपाक-फल तीर्थकरों के अतिशय से नष्ट नहीं होता किन्तु जो विपाक अनिकाचित - कर्म - सम्पन्न है उसका उपशमन तीर्थंकरदेव के अतिशय से हो सकता है । यदि ऐसा न हो तो सम्पूर्ण अतिशयसम्पति के स्वामी श्रमण भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों पर गोशाला जैसी व्यक्तियों के द्वारा किये गये उपसर्गप्रहार कभी संभव नहीं हो सकते । इस से यह भली भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि तीर्थकर देवों का अतिशयविशेष सोपक्रमकर्म की उपशान्ति के लिये हैं न कि निरुपक्रमक का भी उस से उपशमन होता है । यदि निरुपक्रमकम भी कोथकरातिशय से उपशान्त हो जाय तो सारे ही कर्म सोपक्रम ही होंगे, निरुपक्रम कर्म के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता । तथा ईति भीति आदि जितने भी उपद्रव-विशेष हैं ये सब सोपक्रमकर्मसम्पति के अन्तभूत हैं। इस लिए उन का उपशमन भी संभव है।
तब इस सारे सन्दर्भ का सारांश यह निकला कि -चोरसेनापति अभमसेन द्वारा पुरिमताल के प्रान्त में जो उपद्रव मचाया जा रहा था अर्थात् जो अराजकता फैल रही थी तथा उसके स्वरूप उसे जो दण्ड प्राप्त हुश्रा, यह सब कुछ उन प्रान्तीय जीवों तथा अभमसेन के पूर्वबद्ध निकाचित कर्मों का ही परिणामविशेष था, जोकि एक परम असाध्य व्याधि की तरह किसी उपायविशेष से दूर किये जाने के योग्य नहीं था । तात्पर्य यह है कि - तीर्थंकरदेव के अतिशय की क्षेत्र-परिधि से
(१) एक और उदाहरण देखिए - सेर प्रमाण की एक अोर रूई पड़ी है दूसरी ओर सेर प्रमाण का लोहा है । वायु के चलने पर रुई तो उड़ जाती है जब कि लोहे का सेर - प्रमाण अपने स्थान में पड़ा रहता है । तीर्थंकरों का अतिशय वायु के तुल्य है । सोपक्रमकर्म-सेर प्रमाण रूई के तुल्य हैं और निरुपक्रमकर्म मेर प्रमाण लोहे के तुल्य है ।
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