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तोसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[२७१
यह बाहिर की वस्तु थी।
अथवा इस प्रश्न को दूसरे रूप से यूभी समाहित किया जा सकता है कि वास्तव में उक्त घटनाविशेष का सम्बन्ध तो राजनीति से है. इस को उपद्रवविशेष कहा ही नहीं जा सकता । उपद्रवविशेष तो ईति भीति आदि हैं, जिन का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, वे उपद्रव तीर्थंकर देव के अतिशय विशेष से अवश्य दूर हो जाते हैं परन्तु अपराधियों को दिये गये दण्ड का उपद्रवों में संकलन न होने के कारण, उसका तीर्थकरदेव के अतिराय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं:
"-करयल जाव पडिसुणेति- यहां पठित जाव -यावत पद से विवक्षित पदों का निर्देश पृष्ठ २४६ पर किया जा चुका है।
___ "-एतेणं विहाणेणं-"यहां पठित एतद् शब्द से भिक्षा को गए भगवान् गौतम स्वामी ने पुरिमताल नगर के राजमार्ग पर जिस विधान-प्रकार से एक पुरुष को मारे जाने की घटना देखी थी, उस विधान का स्मरण कराना ही सूत्रकार को अभिमत है । तथा एतद् -शब्द - विषयक अधिक ऊहापोह पृष्ठ १७८ पर किया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में अभग्नसेन का । शेष वर्णन सम है ।
-पुरा जाव विहरति-यहां के जाव-यावत पद से -पोराणाणं दुच्चिराणाणं दुप्पिडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का शब्दार्थ पृष्ठ ४७ पर किया जा चुका है।
श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से जो प्रश्न किया था, उस का उत्तर भगवान् ने दे दिया । अब अग्रिम सूत्र में गौतम स्वामी की अपर जिज्ञासा का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूल-'अभागसेणे णं भंते ! चोरसेणावती कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोतमा ! अभग्गसेणे चोग्से० सत्ततीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अज्जेब तिभागावसेसे दिवसे मूलभिन्ने कते समाणे कालगते इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसे० नरेइएसु उवविज्जिहिइ । से णं ततो अणंतरं उचट्टित्ता, एवं संसारो जहा पढमे जाव पुढवीए० । ततो उच्चट्टित्ता बाणारसीए णगरीए मयरत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ सोयरिएहिं जीवियाउ ववरोविए समाणे तत्थेव बाणारसीए णगरीए सेडिकुलसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ उम्मुबालभावे,
(१) छाया-अभग्नसेनो भदन्त ! चोरसेनापति: कालं कृत्या कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपस्यते । गौतम ! अभग्नसेनश्वोरसेनापतिः सप्तत्रिंशतेवर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्य व त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालगतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कर्षेण नैरयिकेधूपपत्स्यते । ततोऽनन्तर. मुद्धृत्य, एवं संसारो यथा प्रथमो यावत् पृथिव्याम् । तत उदृत्य वाराणस्यां नगर्या शूकरतया प्रत्यायास्यति स तत्र शौकरिकैजीर्वनाद् व्यपरोपितः सन् तत्रैव वाराणस्यां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्रोन्मुक्तबालभावः, एवं यथा प्रथम: यावदन्तं करिष्यतीति निक्षेपः ।
। तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
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