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श्री विपाक सूत्र -
[ तोमरा अध्याय
मेरे सामने उपस्थित करो । राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर के दण्डनायक ने योद्धाओं के
वृन्द के साथ शालाटवी चोरपल्ली में जाने का निश्चय कर लिया है ।
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टीका प्रस्तुत सूत्र पाठ में अभग्नसेन के गुप्तचरों की निपुणता का दिग्दर्शन कराया गया है । इधर महाबल नरेश चोरसेनापति प्रभग्रसेन को पकड़ने तथा चोरपल्ली को विनष्ट कर के. करके - लूट वहां की जनता को सुखी बनाने का आदेश देता है और उस आदेश के अनुसार दण्डनायक - कोतवाल अपने सैन्य बल को एकत्रित करके पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय करता है, इधर अभमसेन के गुप्तचर (जासूस) इस सारी बात का पता लगा कर चोरसेनापति के पास आकर वहां का अथ से इति पर्यन्त सारा वृत्तान्त कह सुनाते हैं । उन्हों ने अपने सेनापति से जानपदीय - देशवासी पुरुषों का महाबल नरेश के पास एकत्रित हो कर जाना, उस के उत्तर में राजा की ओर से दिये जाने वाले आश्वासन तथा दण्डनायक को बुला कर चोरपल्ली को नष्ट करने एवं सेनापति को जीते जी पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने और तदनुसार दण्डनायक के महती सेना के साथ पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान का निश्चय करने का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया । अन्त में उन्हों कहा कि स्वामिनाथ ! हमें जो कुछ मालूम हुआ वह सब आप की जानकारी के लिये आप की सेवा में निवेदन कर दिया, अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें ।
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- करयल० जाव एवं " यहां पठित जाव - यावत् पद से " - करयुलपरिग्गहियं दस ह अंजलि मत्थर क ' अर्थात् दोनों हाथों को जोड़ कर और मस्तक पर दस नखों वाली अजली ( दोनों हथेलियों को मिला कर बनाया हुआ सम्पुट ) को करके इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । गुप्तचरों की इस बात को सुन कर अभमसेन चोरसेनापति ने क्या किया ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं
मूल - ' तते गं से अभग्गसेणे चोरसेणावती तेसिं चार पुरिसाणं सोच्चा निसम्म पंच चोरसताई सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी, एवं खलु पुरिमताले गरे महब्धलेणं जाव तेणेत्र पहारेत्थ गमणाय । तते गं पंच चोरसता एवं वयामी- तं सेयं खलु देवाप्पिया ! अहं तं
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अंतिए एयमट्ठ देवाणुप्पिया ! भग्ग सेणे ताई
दंडं सालाडविं
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(१) छाया - ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः तेषां चारपुरुषाणामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य पंच चोरशतानि शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवादीत् एवं खलु देवानुप्रियाः । पुरिमताले नगरे महाबलेन यावत्तेनैव प्रादीधरद् गमनाय । ततः सोऽभग्नसेनस्तानि पंच चोरशतान्येवमवदत् - तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं तं दण्डं शालाटवीं चोरपल्लीमसम्प्राप्तमंतरेव प्रतिषेद्धुम् । ततस्तानि पंच चोरशतानि अभमसेनस्य चोरसेनापतेः " तथा " इति यावत् प्रतिशृण्वन्ति । ततः सोऽभमसेनश्वोर सेनापतिः विपुलमशनं, पानं, खादिमं स्वादिममुपस्कारयति, उपस्कार्य पंचभिः चोरशतैः सार्द्ध स्नातो यावत् प्रायश्चित्तो भोजनमंडपे तं विपुलमशनं ४ सुरां च ५ आस्वादयन् ४ विहरति । जिमितभुक्कोत्तरागतोऽपि च. सन् श्राचान्तश्चोक्षः परमशुचिभूतः पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्धमाद्रं चर्म दूरोहति २ सन्नद्ध० यावत् प्रहरणाः यावत् रवेण पूर्वापराह्नसमये शालाटवीतश्चोरपल्लीतो निर्गच्छति २ विषमदुर्गगहने स्थितो गृहीतभक्तपानीयस्तं दंडं प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति ।