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तोसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[२४७
चोरपल्लि असंपत्तं अंतरा चेव पडिसेहित्तए । तते णं ताई पंच चोरसताई अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तह चि जाव पडिसुणेति । तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति २ ता पंचहिं चोरसतेहिं सद्धि राहाते जाव पायच्छित्ते भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं ४ सुरं च ५ आसाएमाणे ४ विहरति जिमियभुत्तत्तरागते वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूते पंचहि चोरसतेहिं सद्धि अल्लं चम्मं दुरूहति २ ता सन्नद्ध० जाव पहरणं 'मगइएहि जाव रवेणं समुद्दरवभूय पिव करेमाणे पुव्वावरणहकालसमयंसि सालाडवीवो चोरपल्लीओ णिग्गच्छति २ ता विसमदुन्गगहण ठिते गहियभत्तपाणिए तं दंडं पाडवालेमाणे चिट्ठति ।
. पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से- वह । अभग्गसेणे- अभग्नसेन । चोरसेणावती-चोरसेनापति । तेसिं चारपुरिसाणं-उन गुप्तचरों के । अंतिए-पास से । एयम- इस वृत्तान्त को। सोचा-सुनकर। निसम्म-अवधारण कर । पंच चोरसताई-पांच सौ चोरों को । सद्दावेति-बुलाता
ना-बला कर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा । एवं- इस प्रकार । खल-निश्चय से । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! । पुरिमताले गरे-पुरिमताल नगर में । महब्बलेणंमहाबल ने । जाव-यावत् । तेणेव-वहीं अर्थात् चोरपल्ली में । पहरेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय कर लिया है । तते एं-तदनन्तर । से अभग्गसेणे- वह अभग्नसेन । ताई - उन । पंच चोरसताईपांच सौ चोरों के प्रति । एवं-इस प्रकार । वयासी- कहने लगा । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो!। अम्हं-हम को । तं-यह । सेयं खलु-निश्चय ही योग्य है कि ।सालाडविं - शालाटवी । चोरपल्लि-चोरपल्ली को । असंपत्तं - असंप्राप्त अर्थात् जब तक चोरपल्ली तक न पहुँचें, तब तक । तं - उस । दंडं - दंडनायक को। अंतरा चेव-मध्य में ही रास्ते में ही । पडिसेहित्तए - निषिद्ध करना-रोक देना, । तते णं- तदनन्तर । ताई-वे । पंच चोरसताई-पांच सौ चोर । अभग्गसणस्स-अभग्नसेन । चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति के उक्त कथन को। तह त्ति-तथेति"बहुत ठीक" ऐसा कह कर । जाव - यावत् । पडिसुणोत-स्वीकार करते हैं । तते णं- तदनन्तर । से अभग्गसणे- वह अभमसेन । चोरसणावती-चोरसेनापति । विपुलं-बहुत । असणं-अशन । पाणं-पान । खाइम-खादिम । साइमं-स्वादिम वस्तुओं को । उक्खडावेति २ त्ता-तैयार कराता है, तैयार करा के। पंचहिं चोरसतेहि-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ । राहाते - स्नान करता है । जाव-यावत् । पायच्छित्त-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में किये गये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके । भोयणमंडवंसि- भोजन के मंडप में । तं-उस । विपुलं-विपुल । असणं ४ - अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुत्रों का । सुरं च ५- तथा पंचविध सुरा आदि का । आसाएमाणे ४.-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। विहरति-विहरण करने लगा । जिमियभुत्त त्तरागते विय णं समाणे-भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर । श्रायंते-श्राचमन किया। चोक्खे लेप आदि को दूर करके शुद्धि को
(१) मगइपहिं-त्ति हस्तपाशितैर्यावत्करणात् फलहएहीत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकार:
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