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२४८]
श्री विपाक सूत्र
तीसरा अध्याय
इसी लिये । परमसुइभूते-परमशुचिभूत -परमशुद्ध हुआ वह अभग्नसेन । पंचहिं चोरसतेहिं-पांच सौ चोरों के । सद्धिं - साथ । अल्लं- 'आर्द्र-गीले। चम्म-चमड़े पर । दुरूहति-आरूढ़ होता है चढ़ता है । २त्ता-बारूढ हो कर । सन्नद्ध०-दृढ़ बंधनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके । जाब -यावत् । पहरणे-श्रायुधों और प्रहरणों से युक्त । मगइए हिं-हस्तपाशित-हाथों में बांधे हुए । जाव-यावत् । रवेणं । महान् उत्कृष्ट आदि के शब्दों द्वारा ।समुदरवभूयं पिव-समुद्र -शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान । करमाणेकरता हुआ । पुवावराहकालसमयंसि - मध्याह्न काल में । सालाडवीओ- शालाटवी । चोर. पल्लीओ- चोरपल्ली से । णिग्गच्छति-निकलता है ।२ ता-निकल कर । विसमदुग्गगहणंविषम ऊंचा नीचा, दुर्ग-जिस में कठिनता से प्रवेश किया जाए ऐसे गहन - वृक्षवन जिस में वृक्षों का आधिक्य हो, में । ठिते-ठहरा । गहियभत्तपाणिए- भक्त पानादि खाद्य सामग्री को साथ लिये हुए । तं-उस । दंड- दण्डनायक - कोतवाल की । पडिवालेमाणे- प्रतीक्षा करता हुअा। चिट्ठति- ठहरता है।
__ मूलार्थ -तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने अपने गुप्तचरों (जासूस ) की बात को सुन कर तथा विचार कर पांच सौ चोरों को बुला कर इस प्रकार कहा
हे महानुभावो! पुरिमताल नगर के राजा महाबल ने आज्ञा दी है कि यावत् दंडनायक ने शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने तथा मुझे पकड़ने को वहां (चोरपल्ली में) जाने
(१) अभग्नसेन, और उस के साथियों ने जो आई चर्मपर आरोहरणं किया है उस में उन का क्या हार्द रहा हुआ है अर्थात् उन के ऐसा करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में तीन मान्यताएँ उपलब्ध हीती हैं, वे निम्नोत हैं
(१) प्रथम मान्यता आचार्य श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में - "अल्लचम्म दुरूहति, त्ति श्राद्र चारोहति मांगल्यार्थमिति'- इस प्रकार है । इसका भाव है-कि अभमसेन और उसके साथियों ने जो, आर्द्र चर्म पर आरोहण किया है, वह उन का एक मांगलिक अनुष्ठान था, तात्पर्य यह है कि- "विघ्नध्वंसकामो मंगलमाचरेत् -अर्थात् अपने उद्दिष्ट कार्य में आने वाले विघ्नों के विध्वंस के लिये व्यक्ति सर्वप्रथम मंगल का आचरण करे । इस अभियुक्तोक्ति का अनुसरण करते हुए अभमसेन और उस के साथियों ने दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने के लिये किये जाने वाले प्रस्थान से पूर्व मंगलानुष्ठान किया था । मंगलों के विभिन्न प्रकारों में से आर्द्रचर्मारोहण भी उस समय का एक प्रकार समझा जाता था ।
(२) दूसरी मान्यता परम्परानुसारिणी है । इस में यह कहा जाता है कि आर्द्र चर्म पर आरोहित होने का अर्थ है-अपने को "-विकट से विकट परिस्थिति के होने पर भी पांव पीछे नहीं हटेगा, प्रत्यत-"काय वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्" -अर्थात् कार्य की सिद्धि करूगा अन्यथा उसी की सिद्धि में देहोत्सर्ग कर दूगा, की पवित्र नीति के पथ का पथिक बनूगा-" इस प्रतिज्ञा से श्राबद्ध करना ।
(३) तीसरी मान्यता वालों का कहना है कि जिस प्रकार आर्द्र चर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार इस पर प्रारोहण करने वाला भी धन, जनादि वृद्धिरूप प्रसार को उपलब्ध करता है इसी महत्त्वाकांक्षापूर्ण भावना को सन्मुख रखते हुए अभमसेन और उस के ५०० साथियों ने आर्द्र चर्म पर प्रारोहण किया था ।
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