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२३०]
श्री विपाक सूत्र -
[तीसरा अध्याय
जनों के । पुरो - सामने । एवं - इस प्रकार । वयासी - कहने लगा । जम्हा गं - जिस कारण । अहं - हमारे । इमंसि - इस दारगंसि – बालक के । गब्भगयंसि समाणंसि - गर्भ में आने पर |
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इमे - - यह । यारूवे – इस प्रकार का । दोहले - दोहद – गर्भिणी स्त्री का मनोरथ । पाउब्भूते - उत्पन्न हुआ और वह सब तरह से अभग्न रहा । तम्हा णं - इस लिए । श्रहं - हमारा । दारपबालक । श्रभग्गसेणे - अभग्नसेन । नामेणं - इस नाम से । होउ - हो अर्थात् इस बालक का " श्रभग्नसेन " यह नाम रखा जाता है । तते णं-- तदनन्तर । से वह । श्रभग्ग सेणे - अभग्नसेन । कुमारे-कुमार । ' पंचधाई० जाव - ५ धायमाताओं यावत् अर्थात् क्षीरधात्री - दूध पिलाने वाली मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली, मंडनधात्री - अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री - खेल खिलाने वाली और धात्री - गोद में रखने वाली इन पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ वह । परिवड्ढति - वृद्धि को प्राप्त होने लगा ।
मूलार्थ - विजय नामक चोरसेनापति ने उस बालक का दशदिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थितिपतित – कुल क्रमागत उत्सव - विशेष मनाया | ग्यारहवें दिन विपुल अनादि सामग्री का संग्रह किया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को आमंत्रित किया और उन्हें सत्कार - - पूर्वक जिमाया। तत्पश्चात् यावत् उनके समक्ष कहने लगा कि - भद्र पुरुषो ! जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इस की माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था ( जिस का वर्णन पीछे कर दिया गया है ) । उस को भग्न नहीं होने दिया गया, तात्पर्य यह है कि इस बालक की माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ था, वह अभग्न रहा अर्थात् निर्विघ्नता से पूरा कर दिया गया । इसलिये यह नामकरण किया जाता है । तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ यावत् वृद्धि को प्राप्त होने लगा ।
इस बालक का " प्रभग्नसेन ” क्षीरधात्री आदि पांच घाय
टीका - पुत्र का जन्म भी माता पिता के लिये अथाह हर्ष का कारण होता है। पिता की अपेक्षा माता को पुत्र प्राप्ति में और भी अधिक प्रमोदानुभूति होती है, क्योंकि पुत्र-प्राप्ति के लिये वह (माता) तो अपने हृदय को दृढ़ बना कर कभी २ असंभव को भी संभव बना देने का भगीरथ प्रयत्न करने से नहीं चूकती । ऐसी माता यदि अपने विचारों को सफलता के रूप में पाए तो वर्षा के अनन्तर विकसित कमल को भान्ति पुलकित हो उठती है, और वह स्वाभिमान में फूली नहीं समाती । प्रसन्नता का कारण उस की बहुत दिनों से गुथी हुई विचारमाला का गले में पड़ जाना यथोचित स्थान पर आया और आकर आचान्त - श्राचमन (शुद्ध जल के द्वारा मुखादि की शुद्धि) किया, चोक्ष - मुखगत लेपादि को दूर करके शुद्धि की इसी लिए परमशुद्ध हुआ वह विजय चोरसेनापति उन मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का बहुत से पुष्पों वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों. मालाओं और अलंकारों - आभूषणों के द्वारा सत्कार एवं सम्मान करता है, तदनन्तर उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि लोगों के सामने इस प्रकार कहता है ।
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(१) " - पंचधाई ० जाव परिवड्ढति – ” यहां पठित - जाव - यावत् १ पद से ' - परिग्गहिते तंजहा - खीरधातीए मज्जण० से ले कर '- चंपयपायवे सुहंसुहेणं तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १५८ पर दिया जा चुका
- यहां
है
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