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श्री वपाक सूत्र
[तीसरा अध्याय
कुमारे-कुमार । चोरसेणावती-चोरसेनापति । जाते-बन गया, जो कि । अहम्मिए - अधर्मी । जाव-यावत् । कप्पायं-उस प्रान्त के राजदेय कर को । गएहति-स्वयं ग्रहण करने लगा।
मूलार्थ-तत्पश्चात् किसी अन्य समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया । उस की मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन पांच सौ चोरों के साथ रोता हुआ। आक्रन्दन करता हुआ और विलाप करता हुआ अत्यधिक ऋद्धि-वैभव एवं सत्कार - सम्मान अर्थात् बड़े समरोह के साथ विजय सेनापति का निस्सरण करता है । तात्पर्य यह है कि बाजे आदि बजा कर अपने पिता के शव को अन्त्येष्टि कर्म करने के लिए श्मशान में पहुंचाता है और वहां लौकिक मृतककाय अर्थात दाह-संस्कार से ले कर पिता के निमित्त किये जाने वाले दान भोजनादि कार्य करता है।
कुछ समय के बाद अभग्नसेन का शोक जब कम हुआ तो उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्लो में चोरसेनापति की पदनी से अलंकृत किया । चोरसेनापति के पद पर नियुक्त हुआ अभग्नसेन अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् उस प्रान्त के राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लग पड़ा ।
टीका-- संसार की कोई भी वस्तु सदा स्थिर या एक रस नहीं रहने पाती, उस का जो अाज स्वरूप है कल वह नहीं रहता, तथा एक दिन वह अपने सारे ही दृश्यमान स्वरूप को अदृश्य के गर्भ में छिपा लेती है । इसी नियम के अनुसार अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति भी अपनी सारी मानवी लीलाओं का संवरण करके इस असार संसार से प्रस्थान कर के अदृश्य की गोद में जा छिपे ।
सुख और दुःख ये दोनों ही मानव जीवन के सहचारी हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख के आभास से मानव प्राणी अपनी जीवचर्या की नौका को संसार समुद्र में खेता हुआ चला जाता है । कभी वह सुख-निमग्न होता है और कभी दुःख से अाक्रन्दन करता है, उस की इस अवस्था का कारण उसके पूर्वसंचित कर्म हैं । पुण्य कर्म के उदय से उस का-मानव का जीवन सुखमय बन जाता है और पाप कर्म के उदय से जीवन का समस्त सुख दु:ख के रूप में बदल जाता है, तथा जीवन की प्रत्येक समस्या उलझ जाती है । पाप के उदय होते ही भाई, बहिन का साथ छूट जाता है, सम्बन्धिजन मुख मोड़ लेते हैं ।
और अधिक क्या कहें, इसके उदय से ही इस जीव पर से माता पिता जैसे अकारण बन्धुत्रों एवं संरक्षकों का भी साया उठ जाता है । पितृविहीन अनाथ जीवन पाप का ही परिणामविशेष है।
__ अभग्नसेन भी आज पितृविहीन हो गया, उसके पिता का देहान्त हो गया । उस की सुखसम्पत्ति का अधिक भाग लुट गया, अभग्नसेन पिता की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होता हुआ, रोता, चिल्लाता और अत्यधिक विलाप करता है और सम्बन्धिजनों के द्वारा ढ़ाढ़स बंधाने पर किसी तरह से वह कुछ शान्त हुआ और पिता का दाहकर्म उसने बड़े ठाठ से और पूरे उत्साह से किया । एवं मृत्यु के पश्चात् किये जाने वाले - लौकिक कार्यों को भी बड़ी तत्परता के साथ सम्पन्न किया।
कुछ समय तो अभग्नसेन को पिता की मृत्यु से उत्पन्न हुआ शोक व्याप्त रहा, परन्तु ज्यों
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