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२४२)
श्री विपाक सूत्र
[ तोसरा अध्याय
करें । परन्तु हमारे प्रान्त में तो इस समय लुटेरों का राज्य है। चारों तरफ अराजकता फैली हुई है, न तो हमारा धन सुरक्षित है और न ही प्रतिष्ठा-प्राबरू ।
हमारा व्यापार धंधा भी नष्ट हो रहा है। किसान लोग भी भूखे मर रहे हैं । कहां तक कहें, इन अत्याचारों ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है। कृपानिधे! इसी दुःख को ले कर हम लोग आप की शरण में आये हैं। यही हमारे आने का उद्देश्य है। राजा प्रजा का पालक के रूप में पिता माना जाता है, इस नाते से प्रजा उस की पुत्र ठहरती है। संकटग्रस्त पुत्र की सबसे पहले अपने सबल पिता तक ही प्रकार हो सकती है. उसी से वह त्राण की अाशा रखता है। पिता का भी यह कर्तव्य है और होना चाहिये कि वह सब से प्रथम उसकी पुकार पर ध्यान दे और उसके लिये
शीघ्र समुचित प्रबन्ध करे । इसी विचार से हमने अपने द:ख को आप तक पहुंचाने का यत्न किया है। हमें पूर्ण आशा है कि आप हमारी संकटमय स्थिति का पूरी तरह अनुभव करेंगे और अपने कर्तव्य की ओर ध्यान देते हए हमें इस संकट से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न करेंगे।
यह थी उन प्रान्तीय दुःखी जनों की हृदय - विदारक विज्ञप्ति । जिसे उन्हों ने वहां के प्रधान शासक महाबल नरेश के आगे प्रार्थना के रूप में उपस्थित किया। जनता की इस पुकार का महीपति महाबल पर क्या प्रभाव हुआ ? तथा उसकी तरफ से क्या उत्तर मिला ? और उसने इसके लिये क्या प्रबन्ध किया ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं
मूल-'तते णं से महब्बले राया तेसिं जाणवयाणं पुरिसाणं अन्तिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट दंड सद्दावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडविं चोरपल्लिं विलुपाहि २ अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेल्हाहि २ मम उवणेहि, तते णं से दंडे तह त्ति विणएणं एयम पडिसुणेति । तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध० जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुड़े मगइएहिं फलएहिं जाव छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्किट्ठ० जाव करेमाणे पुरिमतालं णगरं मझमग्झेणं निग्गच्छति २ ता जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-उस । महब्बले-महाबल । राया-राजा ने । तेसिंउन । जाणवयाणं-जानपद-देश में रहने वाले । पुरिसाणं पुरुषों के । अन्तिए-पास से । एयमट्ट-इस बात को । सोच्चा -सुनकर कर तथा । निसम्म-अवधारण कर वह । आतुरुत्ते
(१) छाया-ततः स महाबलो राजा तेषां जानपदानां पुरुषाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य अाशरुप्तो यावत् मिसमिसीमाणः (क्र धा ज्वलन् ) त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहत्य दण्डं शब्दाययति २ एवमवादीत् -- गच्छ त्वं देवानुप्रिय ! शालाटवीं चोरपल्ली विलुम्प २ अभग्नसेनं चोरसेनापति जीव - ग्राहं गृहाण २ मह्यमुपनय । ततः स दंडः तथेति विनयेन एतमर्थ प्रतिशृणोति । तत: स दण्डो बहुभिः पुरुषः सन्नद्ध० यावत् प्रहरण: सार्द्ध संपरिवृतो हस्तपाशितैः (हस्तबद्धः) फलकैः यावत् क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट० यावत् कुर्वन् पुरिमतालनगरात् मध्य – मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव शालाटवी चोरपल्ली तत्रैव प्रादीधरद (प्रधारितवान् ) गमनाय ।
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