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इस के अतिरिक्त "
में इस प्रकार है -
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श्री विपाक सूत्र -
[ तीसरा अध्याय
भरिएहि फलिएहिं " इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों
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" भरिएहिं - हस्तपाशितैः, फलरहिं – १ स्फटिकैः, निक्किट्ठाहिं – कोषकादाकृष्टैः, सिहि, खङ्गः, सागपहिं – स्कन्धदेशमागतः - पृष्ठदेशे बन्धनात्, तोणेहिं- शरधिभिः, सजीवेहिं- सजीवै:कोट्यारोपितप्रत्यञ्चः, धरहिं - कोदण्डकैः, समुक्विन्होहिं सरेहिं - निसर्गार्थमुत्क्षिप्तैः वाणैः समुल्लासयाहिं- समुल्लसिताभिः, दामाहिं - पाशकविशेषैः, दाहाहिं – इति क्वचिद् – तत्र प्रहरणविशेषैर्दीर्घवंशाग्रन्यस्तदात्ररूपैः श्रोसारियाहिं - प्रलम्बिताभिः, उरुघंटाहि - जंघाघंटाभिः, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं द्रुतं - तूर्येण वाद्यमानेन, " महया उक्किट्ठ०" इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् - "महया उक्किट्टसीहनाय बोलकत्तकलरवेणं” – तत्रोत्कृष्टश्चानन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः, बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्तवचनः स एव तल्लक्षणो यो रवः स तथा तेन " समुद्दरवभूयं पिव" - जलधिशब्द - प्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थ: "गगनमंडलं” इति गम्यते । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है
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(१) भरित - हस्तरूप पाश (जाल) से गृहीत अर्थात् हस्तबद्ध, (२) फल - स्फटिक मणि के समान, (३) निष्कृष्ट - म्यान से बाहिर निकाली हुई, (४) असि - तलवार, (५) सागतपृष्ठभाग पर बांधने के कारण कन्धे पर रखा हुआ, (६) तूरा - इषुधि-तीर रखने का थैला, (७) सजीव - प्रत्यञ्चा (डोरी) से युक्त, (८) धनुष – फलदार तीर फैंकने का वह अस्त्र जो बांस या लोहे के लचीले डण्डे को झुकाकर उसके दोनों छोरों के बीच, डोरी बांधकर बनाया जाता है, (९) समुत्क्षिप्त - - लक्ष्य पर फैंकने लिये धनुष पर आरोपित किया गया, (१०) शर - धार वाला फल लगा हुआ एक छोटा अस्त्र जो धनुष की डोरी पर खींच कर छोड़ा जाता है-बाण (तीर), (११) समुल्लासित - ऊंची की गई, (१२) दाम - पाशक विशेष अर्थात् फंसाने की रस्सियां अथवा शस्त्रविशेष ।
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पर " दाहाहिं" ऐसा पाठ
• वृत्तिकार के मत से किसी २ प्रति में " दामाहिं " के स्थान भी पाया जाता । उस का अर्थ है - " वे प्रहरणविशेत्र जो एक लंबे बांस पर लगे हुए होते हैंढांगे वगैरह जो कि पशु चराने वाले ग्रामीण लोग जंगल में पशु चराते हुए अपने पास वृक्षों की शाखायें काटने या किसी वन्य जीव का सामना करने के लिए रखते हैं ।
(१३) लम्बिता प्रलंबित- लटकती हुई, (१४) श्रवसारिता - हिलाई जाने वाली अथवा ऊपर को सरकाई जाने वाली, (१५) क्षिप्रतूर्य - शीघ्र शीघ्र बजाया जाने वाला वाद्य, (१६) वाद्यमान
बजाया जा रहा ।
" महया उक्किट्ठ० जाव समुद्दरव" यहां पठित जाव- यावत् पद से सिंहनाद के, बोल के, कलकल के शब्दों से इन पदों का ग्रहण करना सूत्र कार को अभिमत है । उत्कृष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है -
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(१) वृत्तिकार को 16 फलप"ि इस पाठ का - स्फटिक (स्फटिक रत्न की कान्ति के के समान कान्ति वाली तलवारें ) - यह अर्थ अभिप्रेत है । परन्तु हैमशब्दानुशासन के " स्फटिके लः । ८ / १ / १९७ । स्फटिक टस्य लो भवति । फलिहो । और "निकषस्फटिकचिकुरे हः । ८/१/१८६ | सूत्र से स्फटिक के ककार को हकार देश हो जाता है, इस से स्फटिक का फलिह यह रूप बनता है । प्रस्तुत सूत्र में फलन पाठ का श्राश्रयण है । इसी लिये हमने इसका फलक (दाल) यह अर्थ किया है ।
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