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तीसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[ २२३
(१) उत्कृष्ट - श्रानन्दमय महाध्वनि । (२) सिंहनाद - सिंह का नाद गर्जना । (३) बोलवर्णों की अव्यक्त ध्वनि अर्थात् जिस आवाज़ में वर्णों की प्रतीति न हो कलकल - वह ध्वनि जिस में वर्णों की अभिव्यक्ति - प्रतीति होती है ।
। ( ४ )
उत्कृष्ट, सिंहनाद, बोल और कलकल रूप जो शब्द हैं, उनके द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमण्डल - श्राकाशमण्डल को करती हुई ।
“श्रमवि जाव विणिज्जामि” – यहां पठित “ – जाव- यावत् - " पद से "बहूहिं मित्तणा - नियगसयणसंबन्धिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा” – से लेकर "चोरपल्लीप सव्वश्रो समंता ओलोपमाणीश्रो २ श्रहिण्डेमाणीओ दोहलं " यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना चाहिए। इन पदों का अर्थ पृष्ठ २१८ तथा २१९ पर कर दिया गया है ।
"प्रविणिज्जमारांसि जाव भियाति" - यहां पठित- जाव यावत - पद से “ – सुक्खा, भुक्खा निम्मंसा श्रलुग्गा श्रलुग्गसरीरा नित्तया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही मंथियनयण - वयणकमला जहोइयं पुष्फवत्थगन्धमल्लालंकारहारं अपरिभुजमाणी करयलम लिय व्व कमलमाला, हयमणसंकप्पा” – इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४५ पर दिया जा चुका है।
प्रस्तुत सूत्र में निर्णय का नरक से निकल कर स्कन्दश्री के उदर में आने का तथा स्कन्दश्री को उत्पन्न दोहद का वर्णन सूत्रकार ने किया है। अब उसके दोहद की पूर्ति और बालक के जन्म का अग्रिम सूत्र में वर्णन करते हैं -
मूल - १ तते गं से विजए चोरसेगावती खंदसिरिं भारियं श्रहत० जाव पासति २ एवं वयासी किरणं तुमं देवा ! ओहत० जाव झियासि ? तते गं सा खंदसिरी विजयं एवं वयासी एवं खलु देवाणु ! मम तिरहं मासाणं जाव कियामि । तते गं से विजए चोरसेगावती खंदसिरीए भारियाए अंतिते एवमट्ठ सोच्चा निसम्म खंदसिरिं भारियं एवं वयासी - हासुहं देवाप्पिए ! ति एयमट्ठ पडिसुखेति । तते गं मा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावतिणा भरणाया समाणी हट्ट० बहूहिं मित्त० जाव अन्नाहि य
(१) छाया - ततः सं विजयश्वोरसेनापतिः स्कन्दश्रियं भार्यामपहत० यावत् पश्यति दृष्ट्वा एवमवदत् किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहृत० यावद् ध्यायसि ? ततः सा स्कंदश्री: विजयमेवमवादीत्एवं खलु देवानु० ! मम त्रिषु मासेषु यावद् ध्यायामि । ततः स विजयश्वोर सेनापतिः स्कन्दश्रियः भार्यायां श्रन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य स्कन्दश्रियं भार्यामेवमवादीत् यथासुखं देवानुप्रिये ! इत्येतमर्थं प्रतिशृणोति । ततः सा स्कन्दः भार्या विजयेन चोरसेनापतिना अभ्यनुज्ञाता सती हृष्ट बहुभिमिंत्र० यावदन्याभिश्च बहुभिश्चौर महिलाभिः सार्द्ध संपरिवृता स्नाता यावद् विभूषिता विपुलमशनं ४ सुरां ५ स्वादयन्ती ४ विहरति । जिमितभुक्कोत्तरागता पुरुषनेपथ्या सन्नद्धबद्ध० यावदाहिंडमाना दोहदं विनयति । ततः सा स्कन्दश्री भार्या सम्पूर्णदोहदा, संमानित दोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा तं गर्भं सुखसुखेन परिवहति । ततः सा स्कन्दश्री: चोरसेनापत्नी नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता ।
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