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तीसरा अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[२१९
श्चित्त के रूप में तिलक और मांगलिक कार्य करने वाली । सवालंकारभूसिता-सम्पूर्ण अलंकरणों से विभूषित हुई । विपुलं-विपुल – बहुत । असणं-- अशन - रोटी दाल आदि । पाणं-पानपानी आदि पेय पदार्थ । खाइम-खादिम-मेवा और मिष्टान्न आदि । साइमं-स्वादिम–पान सुपारी
आदि सुगन्धित पदार्थों का । सुरं च ५- और पांच प्रकार की सुरा अादि का। प्रासादेमाणा ४-आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई । विहरंति विहरण करती हैं । जिमियभुत्तु त्तरगयाओ-तथा जो भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आगई हैं । पुरिसनेवत्थिया-पुरुष-वेष को धारण किये हुए हैं । सन्नद्ध०-दृढ़ बन्धनों से वांधे हुए और लोहमय कसूल क आदि से संयुक्त कवच-लोहमय बखतर को धारण किये हुए हैं । 'जाव-यावत् । पहरणा-जिन्हों ने आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए हैं । भरिएहिं फलिपहि-वाम हस्त में धारण किये हुए फलक -दालों के द्वारा । निक्किट्ठाहिं असोहि-कोश - म्यान ( तलवार कटार आदि रखने का खाना) से निकली हुई कृपाणों के द्वारा । अंसागतेहिं-तोणेहि-अंसागत-स्कन्ध देश को प्राप्त तूण-इषुधि ( जिस में बाण रक्खे जाते हैं उसे तूण या इषुधि कहते हैं ) के द्वारा । सजीवहिं धराहि-सजीव-प्रत्यंचा - डोरी-से युक्त धनुषों के द्वारा । समुक्विवत्तेहिं सरेहि-लक्ष्यवेधन करने के लिये धनुष पर
आरोपित किये गये शरों-बाणों द्वारा । समुल्लासियाहिं दामाहि-समुल्लसित-ऊचे किये हुए पाशोंजालों अथवा शस्त्रविशेषों से । वियाहिं-लम्बित जो लटक रही हों । अवसारियाहि-तथा अवसारित–चालित अर्थात् हिलाई जाने वाली । उरुघंटाहि-जंघा में अवस्थित घंटिकाओं से । छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं-शीघ्रता से बजने वाले बाजे के बजाने से । महया -महान् । उक्किट्ठ०उत्कृष्ट-श्रानन्दमय महाध्वनि आदि से । जाव - यावत् । समुदरवभूयं पिव-समुद्र शब्द के समान महान् शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को । करमाणीप्रो-करती हुई । सालाडवीए चोरपल्लीए-शालाटवी नामक चोरपल्ली के । सव्वओ समंता-चारों तरफ का । ओलोरमाणीओ -अवलोकन करती हुई । आहिंडेमाणीओ-भ्रमण करती हुई । दोहलं-दोहद को । विणेति -पूर्ण करती हैं । तं-सो। जइ णं-यदि । अहं पि-मैं भी । जाव-यावत् । विणिज्जामि-दोहद को पूर्ण करू । त्ति कटु -ऐसा विचार करने बाद । तसि दोहलंसिउस दोहद के । अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने पर । जाव-यावत् । झियाति-पार्तध्यान करती है।
. मूलार्थ-वह निर्णय नामक अण्डवाणिज नरक से निकल कर इसी शालाटवी नामक चोरपल्लो में विजयनामा चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। किसी अन्य समय लगभग तीन मास पूरे होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प विशेष) उत्पन्न हुआ।
* वे माताएं धन्य हैं जो अनेक मित्रों की, ज्ञाति की, निजकजनों की, स्वजनों को, सम्बन्धियों की और परिजनों की महिलाओं-स्त्रियों तथा चोर-महिलाओं से परिवृत हो कर,
(१) “सन्नद्ध० जाव पहरणा-यहां पठित जाव-यावत् पद से “बद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया"-से ले कर " गहियाउह”- इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का शब्दार्थ पृष्ठ १२४ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषों के विशेषण हैं. जब कि यहां प्रथमान्त और स्त्रियों के विशेषण हैं।
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