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२१८]
श्री विपाक सूत्र
[तीसरा अध्याय
भारियाए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुरणाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते, धरणाश्रो णं ताओ अम्मयाओ ४ जा णं बहुहिं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिखुड़ा एहाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ५ प्रासादेमाणा ४ विहरति । जिमियभुत्तत्तरागयाअो पुरिसनेवत्थिया सन्नद्ध० जाव पहरणा भरिएहिं फलएहिं, णिक्किट्ठाहिं असीहिं अंसागतेहिं तोणेहि, सजीवहिं धण हिं समुश्वित्तेहिं सरेहिं समुल्लासियाहिं दामाहि लम्वियाहिं अवसारियाहिं उरुघंटाहिं छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया उक्किट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वश्रो समंता ओलोएमाणीओ २ आहिंडेमाणीओ २ दोहलं विणेति । तं जइ णं अहं पि जाव विणि जामि, ति कट्ट तसि दोहसि अविणिजमाणंसि जाव झियाति ।
पदार्थ-से णं-वह–निर्णय नामक अण्डवाणिज-अण्डों का व्यापारी । तो- वहां से-नरक से । अणंतरं-अन्तर रहित । उव्वहित्ता-निकल कर । इहेव -इसी । सालाडवीए-शालाटवी नामक । चोरपल्लीए-चोरपल्ली में । विजयस्स-विजय नामा । चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की । खंद सरीए-स्कन्दश्री। भारियाए–भार्या की । कुञ्छिसि-कुक्षि में-उदर में । पुत्तत्साए - पुत्ररूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । तते णं-तदनन्तर । तीसे-उस । खंदसिरीए- स्कन्द - श्री। भारियाए-भार्या को । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । तिराहं मासाणं-तीन मास । बहुपडिपुराणाणं-परिपूर्ण होने पर । इमे- यह । एयारुवे-इस प्रकार का । दोहले-दोहद गर्भवती स्त्री का मनोरथ । पाउन्भूते-उत्पन्न हुा । तारो-वे ।' अम्प्रयाश्रो ४-मातायें ४ ॥ धरणाप्रो णं-धन्य हैं । जाणं-जो । बहूहिं-अनेक । मित्त-मित्र । गाइ-ज्ञातिजन । नियगनिजक-पिता पुत्र श्रादि । सयण-स्वजन-चाचा, भाई, आदि । सम्बन्धि - सम्बन्धी-श्वशुर, साला आदि । परियणं --परिजन-दास आदि की । महिलाहिं-स्त्रियों के तथा । अन्नाहि य-अन्य । चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाओं के । सद्धिं-साथ । संपरिवुड़ा-संपरिवृत-घिरी हुई तथा । गहाया-नहाई हुई। जाव - यावत् । पायच्छिना-अशुभ स्वप्नों के फल को विफल करने लिये प्राय
(१) “ अम्मयाओ ४"- यहां के ४ के अंक से-"सपुरणाओ ण ताश्रो अम्मयात्रो कयत्थाओ ताओ अम्मयाओ, कयपुराणाम्रो ताओ अम्मयाओ कयलक्खरणाओ, णं तारो अम्मयाओ-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का भावार्थ निम्नोक्त है -
वे मातायें सपुण्या-पुण्य वालियां हैं, वे माताएं कृतार्थ हैं-उन के प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं, वे मातायें कृतपुण्या हैं - उन्हों ही ने पुण्य की उपार्जना की है, तथा वे मात.ये कृतलक्षणा हैंसंपूर्ण लक्षणों से युक्त हैं ।
(२) " राहाया जाव पायच्छित्ता"- यहां पठित जाव-यावत् पद से "-कयबलिकम्मा कय-कोउयमंगल-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन पदों की व्याख्या प्रष्ठ १७६ तथा १७७ पर की जा चुकी है ।
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