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तीसरा अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[२११
ऐसा विचार कर भगवान् गौतम पुरिमताल नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक-अनेकविध घरों से उपलब्ध, भिक्षा ग्रहण कर पुरिमताल नगर के मध्य में से होकर निकलते हैं और जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पाते हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण (दोष निवृत्ति) करते हैं । एषणोय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) की आलेचना (चिन्तन या प्रायश्चित्त के लिये दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) करते हैं। आलोचना कर के भगवान् को श्राहार पानी दिखलाते हैं । दिखला कर प्रभु को वन्दना तथा नमस्कार कर के, वे इस प्रकार निवेदन करने लगे।
"तं चेव जाव से"- यहां पठित “जाव-यावत्" पद से -तुमेहिं अब्भणुण्णार समाणे परिमताले नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव समोगाढे. तत्थ णं बहवे हत्थी पासामि बहवे आसे पासामि-से लेकर - रुहिरपाणं च पाएंति, तं पुरिसं पासामि २ अयं एयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने-अहो णं इमे पुरिसे परा पोराणं दुञ्चिराणाणं-से लेकर-नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि जहां पहले पाठों में "पासति" यह पाठ
आया है वहां इस प्रकरण में "पासामि', इस पद की संकलना को गई है । क्योंकि पहले वर्णन में तो सूत्रकार स्वयं भगवान् गौतम स्वामी का परिचय करा रहें हैं । जब कि इस वर्णन में भगवान् गौतम स्वयं अपना वृत्तान्त प्रभु वीर के चरणों में सुना रहे हैं । ऐसी स्थिति में 'पासामि" (देखता हूँ) ऐसे प्रयोग की संकलना करनी ही होगी, तभी पूर्वापर अर्थ की संगति हो सकती है।
"आसि ? जाव विहरति"- यहां पठित "जाव-यावत्" पद से-"किंनामए वा किं गोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किंवा दच्चा किं वा भोच्चा किंवा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाण पावाण कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे" - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का भावार्थ पृष्ठ ५१ पर दिया जा चुका है।
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ कथन किया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं
मूल-' एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे
___(१) छाया - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पुरिमतालं नाम नगरमभवत् , ऋद्ध० । तत्र पुरिमताले उदितो नाम राजा अभवत् महा० । तत्र च पुरिमताले निणयो नाम अण्डवाणिजोऽभूत् श्रादयो यावदपरिभूतः, अधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्य निर्णयस्याण्डवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना कल्याकल्यि कुदालिकाश्च पत्थिकापिटकानि च गृह्णन्ति पुरितालस्य नगरस्य परिपर्यन्तेषु बहवः काक्यंडानि च घक्यंडानि च पारापती--टिटिभी- बकीमयूरी-कुक्कुट्य डानि च, अन्येषां चैव बहूनां जलचर-स्थलचर-खचरादीनामंडानि गृह्णन्ति, गृहीत्वा च पत्थिकापिटकानि भरन्ति, भृत्वा च यत्रैव निर्णयोऽण्डवाणिजस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य निर्णयस्यांड. वाणिजस्योपनयन्ति । ततस्तस्य निर्णयस्यांडवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृति० बहूनि काक्यण्डानि च यावत् कुक्कुट्य डानि च अन्येषां च बहूनां जलचरस्थलचरखचरादीनामंडानि तवकेषु च कवल्लीषु च कन्दुषु च भर्जनकेषु चांगारेषु च तलन्ति, भृज्जन्ति, पचन्ति, तलन्तो भृज्जन्तः पचन्तश्च राजमार्गेऽन्तरापणे अण्ड
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