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दुसरा अध्याय 1
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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था किन्तु उन की सौभाग्य-श्री ने उन्हें पुकारा हो ऐसा था । उन्हों ने हस्तनिक्षेप और उस के प्रतिरिक्त अन्य सारभांड आदि को लेकर एकान्त में प्रस्थान कर दिया, सारांश यह है कि विजय मित्र की विभूति में से जो कुछ किसी के हाथ लगा वह लेकर चलता बना ।
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ऐश्वर्य वाले को ईश्वर कहते हैं। राजा सन्तुष्ट हो कर जिन्हें पट्टबन्ध देता है, वे राजा के समान पबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं अथवा नगर रक्षक कोतवाल को तलवर कहते हैं । जो बस्ती भिन्न भिन्न हो उसे मडम्ब और उस के अधिकारी को माडम्बिक कहते हैं। जो कुटुम्ब का पालन पोषण करते हैं या जिन के द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है उन्हें कौटुम्बिक कहते हैं । इसका अर्थ है हाथी । हाथी के बराबर द्रव्य जिस के पास हो उसे इभ्य कहते हैं । जो नगर के प्रधान व्यापारी हों उन्हें अष्ठी कहते हैं । जो गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप खरीदने और बेचने योग्य वस्तुओं को लेकर और लाभ के लिये देशान्तर जाने वालों को साथ ले जाते हैं और योग (नई वस्तु की प्राप्ति), क्षेम ( प्राप्त वस्तु की रक्षा) द्वारा उन का पालन करते हैं, तथा दुःखियों की भलाई के लिए उन्हें धन देकर व्यापार द्वारा धनवान् बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं । ईश्वर आदि शब्दों के प्रस्तुत सूत्र के पृष्ठ ५७ पर दिए जा चुके हैं।
और अर्थ भी देखने में आते हैं। कर्मचक्र में फंसा हुआ मनुष्य चारों तर्फ से दुःखी होता है। जो मित्र होते हैं वे शत्रु बन जाते हैं और अवसर मिलने पर उस की धनसम्पत्ति को हड़प करके स्वयं धनी होना चाहते हैं । सारांश
यह है कि रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं, जिस का यह एक - विजयमित्र ज्वलन्त उदाहरण है ।
जिस समय सुभद्रा ने पति का मरण और जहाज़ का डूबना सुना तो वह शाखा की भांति ज़मीन पर गिर गई और उसे कोई होश नहीं रही। थोड़ी देर रोने चिल्लाने और विलाप करने लगी । इसी अवस्था उस ने पतिदेव का श्रर्द्ध - दैहिक कृत्य ( मरने के बाद किए जाने वाले कर्म, अन्त्येष्टिकर्म । किया, तथा कुछ समय बाद वह पति - वियोग की चिन्ता में निमग्न हुई मृत्यु को प्राप्त हो गई ।
वृक्ष से कटी हुई लता - बाद होश आने पर वह
दुःखी हृदय ही दुःख का अनुभव कर सकता है । पिपासु को ही पिपासाजन्य दुःख की अनुभति हो सकती है इसी भांति पति-वियोग-जन्य दुःख का अनुभव भी असहाय विधवा के सिवा और किसी को नहीं हो सकता । विजयमित्र सार्थवाह के परलोकगमन और घर में रही हुई धन सम्पत्ति के बिनाश से सुभद्रा के हृदय को जो तीव्र आघात पहुंचा उसी के परिणाम स्वरूप उस की मृत्यु हो गई ।
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प्रस्तुत सूत्र में “ - इत्थनिक्खेव हस्तनिक्षेप - " और " - बाहिर भण्डसार बाह्यभाण्डसार - इन पदों का प्रयोग किया गया है, आचार्य अभयदेव सूरि ने इन पदों की निम्नोक्त व्याख्या की है" - हत्थनिक्खेवं च त्ति हस्ते निक्षेपो न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेम्, बाहिरभाण्डसारं च - " ति हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारमिति - " अर्थात् जो हाथ में दूसरे को सौंपा जाए उसे हस्तनिक्षेप कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो धरोहर का नाम हस्तनिक्षेप है । हस्तनिक्षेप के अतिरिक्त जो सारभाण्ड है उसे बाह्यभाण्डसार कहते हैं । तात्पर्य यह है कि किसी की साक्षी hair पने हाथ से दिया गया सारभाण्ड हस्तनिक्षेप और किसी की साक्षी से अर्थात् लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से विख्यात है ।
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सारभण्ड शब्द से महान् मूल्य वाले वस्त्र, आभूषण श्रादि पदार्थ गृहीत होते हैं । और पुरातन वस्त्र, पात्र, आदि पदार्थों को मार भण्ड कहा जाता है। या यूं कहें कि जो पदार्थ भार में लघु-हलके हों,