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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
दूसरा अध्याय ]
है। रहस्यं तु केवलिगम्यम् |
है जैसे
कि -
(१) मांसाहार
प्रस्तुत अध्ययन में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया और (२) व्यभिचार । मांसाहार यह जीव को कितना नीचे गिरा देता है ? और नरक. गति में कैसे कल्पनातीत दुःखों का उपभोग कराता है ? तथा अध्यात्मिक जीवन का कितना पतन करा देता है ? यह उज्झितक कुमार के उदाहरण से भली भान्ति स्पष्ट हो जाता है । साथ में व्यभिचार से कितनी हानि होती है । उस के आचरण से मत्यलोक तथा नरकगति' में कितनी यातनायें सहन करनी पड़ती हैं ? यह भी प्रस्तुत अध्ययनगत उज्झितक कुमार के जीवन-वृत्तान्त से भली भान्ति ज्ञात हो जाता है । सारांश यह है कि जी का हिंसामय और व्यभिचार - परायण होना कितना भयंकर है ? इस का दिग्दर्शन कराना ही प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है ।
पुण्य और पाप के स्वरूप तथा उस के फल- विशेष को समझाने का सरल से सरल यदि कोई उपाय है, तो वह आख्यायिकाशैली है । जो विषय समझ में न आ रहा हो, जिसे समझने में बड़ी कठिनता प्रतीत होती हो तो वहां आख्यायिका - शैली का अनुसरण राम-बाण औषधि का काम करतो है आख्यायिका - शैली को ही यह गौरव प्राप्त है कि उस के द्वारा कठिन से कठिन विषय भी सहज में अवगत हो सकता है और सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी उसे सुगमतया समझ सकता है। इसी हेतु से प्राचीन आचार्यों ने वस्तुतत्व को समझाने के लिए प्राय इसी आख्यायिका - शैली का श्राश्रयण किया है । आख्यान के द्वारा एक बाल- बुद्ध जीव भी वस्तुतत्त्व के रहस्य को समझ लेता है, यह इस रही हुई स्वाभाविक विलक्षणता है । प्रस्तुत सूत्र में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है । कहानी के द्वारा पाठकों को हिंसा के परिणाम तथा व्यभिचार के फल को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया गया है । उज्झितक कुमार की इस कथा से प्रत्येक साधक व्यक्ति को यह शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये कि किसी प्राणी को कभी भी सताना नहीं चाहिये और वेश्या आदि की कुसंगति से दूर रहने का सदा यत्न करना चाहिये । वेश्या की कुसंगति से उज्झितक कुमार को कितना भयंकर कष्ट सहन करना पड़ा था ? यह उसके उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट ही है । भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनविवर्द्धिता ।
कामिभिर्यत्र हूयन्ते, यौवनानि धनानि च ॥
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अर्थात् - वेश्या यह रूपलावण्य से धधकती हुई कामदेव की ज्वाला है, इस में कामी पुरुष प्रतिदिन अपने यौवन और धन का हवन करके अपने जीवन को नष्ट कर लेते हैं । इस अध्ययन के पढ़ने का सार भी यही है कि इस में कहानी रूप से दी गई अमूल्य शिक्षात्रों को जीवन में लाकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का यथाशक्ति अधिक से अधिक यत्न करना चाहिये क्योंकि मात्र पढ़ लेने से कुछ लाभ नहीं हुआ करता । "पक्षीगण आकाश में सानन्द विचरने में तभी
समर्थ हो पर भी दोनों
मज़बूत और सहीसलामत हों । दोनों में से यदि एक पक्ष स्वेछा - पूर्वक आकाश में विचरण नहीं हो सकता । इस लिये उसके आकाश - विहार के लिये अत्यन्त आवश्यक है । ठीक ज्ञान और तदनुरूप क्रिया - आचरण
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सकते हैं जब कि उन के पक्ष पर दुर्बल या निकम्मा है तो उसका पक्षों का स्वस्थ और सबल होना उसी प्रकार साधक व्यक्ति के लिये दोनों की आवश्यकता है अकेला ज्ञान कुछ भी कर नहीं पाता
(१) उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षीणां गतिः । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः ॥ १ ॥
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