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१८८]
श्रो विपाक सूत्र
[दूसरा अध्याय
साधु बन जायेगा)-" यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना । और "अणगारे यहां के बिन्दु से "भविस्सइ ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । से णं तत्थ
समिए जाव गुत्तबंभयारी । से णं तत्थ बहूई वासाई सामरणपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कन्ते कालमासे कालं किच्चा" यहां तक का पाठ ग्रहण करना तथा "-सो. हम्मे कप्पे०-" यहां के बिन्दु से "-देवत्ताए उववन्जिहिति । से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेह-वासे जाई कुलाई भवन्ति अडढाई-" यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन के पृष्ठ ९२ पर लिखा जा चुका है ।
“जहा पढमे जाव अंतं " यहां पठित " जाव- यावत् ” पद से औपपातिक सूत्र के "-टित्ता विताई विलिराण-विउल-भवण-सयणासन-जाण वाहणार्ड" से ले कर "चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुझिहिति मुञ्चिहिति परिणिवाहिति सव्व-दुक्खाणमंतं-" यहां तक के पाठ का परिचायक है । इस पाठ का अर्थ पाठक वहीं देख सकेंगे।
पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा - स्वामी के चरणकमलों में यह निवेदन किया था कि भगवन् ! दु:ख-विपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ तो मैंने समझ लिया है, अब आप कृपया यह बतलावे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दूसरे अध्ययन में क्या अर्थ कथन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने पूर्वोक्त उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन सुनाना प्रारम्भ किया था। उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन करने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बूस्वामी से कहा कि हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ, तात्पर्य यह है कि भगवान् ने मुझे जिस प्रकार सुनाया है उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है । मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। इन्हीं भावों को सूचित करने के निमित्त सूत्रकार ने " निस्खेवो" इस पद का उल्लेख किया है।
निक्षेप पद के कोषकारों के मत में उपसंहार ओर निगमन ऐसे दो अर्थ होते हैं । उपसंहार शब्द के "- मिला देना, संयोग कर देना, समाप्ति, भाषण या किसी पुस्तक का अन्तिम भाग जिस में उस का उद्देश्य अथवा परिणाम संक्षेप में बतलाया गया है - '' इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक है, और निगमन शब्द परिणाम, नतीजा इत्यादि अर्थों का बोध कराता है । अब यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत प्रकरण में निक्षेत्र का कौन सा अर्थ अभिमत है ?
- हमारे विचारानुसार प्रस्तुत में निक्षेप का - उपसंहार—यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, निगमन का अर्थ यहां संघटित नहीं हो पाता, क्योंकि प्रस्तुत में निक्षेप पद " - एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं वि यस्स अज्झयणस्स अयमठे पराणते त्ति बेमि-" इन पदों का संसूचक है । इन पदों का प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन में प्रति गादित कथावृत्तान्त के साथ कोइ सम्बन्ध नहीं है, तब निगमन पद का अर्थ यहां कैसे संगत हो सकता है ? हां यदि इन पदों में प्रस्तुत अध्ययन का परिणाम - नतीजा वर्णित होता तो निगमन पद का अर्थ संगत हो सकता था।
उपसंहार पद का भी यहां पर-मिला देना- यह अर्थ संगत हो सकेगा, क्योंकि यहां पर सूत्रकार का आशय अध्ययन की समाप्ति पर पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने से है । पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने वाले "एवं खलु जम्ब!” इत्यादि पद हैं । इन्हें ग्रहण कर लिया जाए. यह.. सूचना देने के लिए ही सूत्रकार ने 'निक्खेवो" इस पद का उपन्यास किया है । दूसरे शब्दों में निक्षेप पद का अर्थ"-- अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला समाप्ति-वाक्य --"इन शब्दों के द्वारा किया जा सकता
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