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[दूसरा अध्याय
नपुंसकम्मं सिखावेर्हिति । तते रणं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो णिव्वतबारसाहस्ल इमं tured urमधेज्जं करेईिति, होड णं पियसेणे गामं णपु सए - " ऐसा ही प्रायः पाठ उपलब्ध होता है । परन्तु हमारे विचारानुसार उस के स्थान में "तते णं तं दारयं श्रम्मापितरो जायमेत्तकं कहिंति । तते गं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो णिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेज्जं करेहिति होउ णं पियसे कामं नपुंसप, तते गं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो तं दारगं नपुंसकम् लिक्खाहिंति" ऐसा पाठ होना चाहिये । इस का भावार्थ निम्नोक है
माता पिता उत्पन्न होते उस बालक को नपुंसक - पुरुषत्व शक्ति से होन करेंगे तथा बारहवें दिन उस बालक का प्रियसेन नपुंसक ऐसा नामकरण करेंगे, तदनन्तर उसे नपुंसक का कर्म सिखलावेंगे ।
यदि इस में इतन परिवर्तन या संशोधन न किया जाय तो एक महान् दोष आता है । वह यह कि जिसका अभी नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ तथा जिसने अभी माता के दूध का भी सम्पक्तया पान नहीं किया, एवं जो सर्वथा अबोध हैं, ऐसे सद्योजात शिशु को किसी स्वतन्त्र विषय का अध्ययन कैसे कराया जा सकता है ? अर्थात् नपुंसक कर्म कैसे सिखाया जा सकता है ? यदि नामकरण संस्कार के अनन्तर नपुंसक - कर्म की शिक्षा का उल्लेख हो जाए तो कुछ संगत हो सकता
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श्री विपाक सूत्र
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उसका कारण यह है कि वहां "तते" यह पद दिया है, जिस में बड़ी गुजाइश है । "तते' का अर्थ है - तत् पश्चात् । तात्पर्य यह है कि नामकरण संस्कार के अनन्तर बाल्यावस्था के उल्लंघन से: प्रथम का काल " तत्पश्चात् ' पद से ग्रहण किया जा सकता हैं । हमारी इस कल्पना के चियानोचित्य का विशेष विचार तो श्रागमों के विशेषज्ञ तथा विचार शील सहृदय पाठकों के विचार-विमर्श ही पर निर्भर करता है। हमने अपने विचारानुसार अपने भाव अभिव्यक्त कर दिये हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रियसेन के द्वारा राजादि धनिकों के वश में करने श्रादि का जो उल्लेख किया गया है, उस की वृत्तिकार सम्मत व्याख्या इस प्रकार है -
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विद्यामन्त्र - चूर्ण – प्रयोगैः, किंविधैः इत्याह " – हियउडावणेहिं य-" त्ति हृदयोडायनः शून्यचित्तताकारकै:, “ – गिराहवणेहि य" त्ति श्रवश्यताकारकैः किमुक्तं भवति । अपहृतधनादिरपि परो धनापहारादिकं यैरपहते- -न प्रकाशयति तदपह्नवता श्रतस्तैः । “- पराहवणेहि य- " ति प्रस्नवनैयैः परः प्रस्तुतिं भजते प्रल्हत्तो भवतीत्यर्थः, “ – वसीकरणेहि य - " ति वश्यताकारकैः, किमुत' 'भवति ? "श्राभिश्रोगरहि" त्ति अभियोगः पारवश्यं स प्रयोजनं येषां ते श्राभियोगिकाः श्रतस्तैः अभियोगश्च द्वेधा यदाह
'दुविहो खलु श्रभिश्रोगो, दव्वे भावे स होइ नायव्वो । दव्वम्मि हुन्ति जोगा, विज्जा मंता य भावम्मि ॥ १ ॥
अर्थात् प्रस्तुत पाठ में विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ये दो विशेष्य पद हैं और हृदयोड्डायन, निहवन, प्रस्तवन, वशीकरण और श्रभियोगिक ये विशेषण पद हैं। विद्या शब्द के " - शास्त्रज्ञान, विद्वत्ता इत्यादि अनेकों श्रर्थ मान्य होने पर भी प्रस्तुत प्रकरण में इस का " - देवी द्वारा अधिष्ठित अक्षर पद्धति - "यह श्रर्थ अभिमत है । अर्थात् प्रिसेन जो कुछ लिख देता था यह देवी के प्रभाव से निष्कल नहीं जाता था । विद्या का प्रयोग विद्याप्रयोग कहलाता है । मन्त्र शब्द देवता को सिद्ध करने की शाब्दिक शक्ति' का परिचायक है । चूर्ण भस्म श्रादि का नाम
१ द्विविधः खल्बभियोगो, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये 'भवन्ति योगाः, विद्या मन्त्राश्च भावे ।। १॥
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